गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

वो मैं नहीं - Part 2 (फुल बुक)

गंगा की बातें सुन मानव की माँ को मन में डर समाता जा रहा था, लेकिन वह डर के भाव अपने चेहरे पर आने नहीं देना चाह रही थी | अतः वह अपने डर के भावों को छिपाकर गंगा से बोली, “ये मिठाई अपने बच्चों के लिए अपने घर ले जा। फिर भी मैं मानव और अपने लिए दो लड्डू ले लेती हूँ  और बाकी रही मानव की बात तो वह अपने किसी दोस्त से मिलने के लिए यहीं पड़ोस की गली में  गया है।” 

गंगा का जवाब था, “ठीक है, जब तक वह नहीं आता, तब तक मैं उसका इंतजार यहीं बैठकर कर लेती हूँ।”

माँ ने कहा, “अब उसका पता नहीं, वह कितनी देर में लौटेगा?”  दरअसल माँ चाहती थी कि मानव के आने से पहले ही गंगा वहाँ से टल जाए लेकिन गंगा ने यह कहकर कि आज उसे कोई जरूरी काम भी नहीं है, वह यहीं बैठकर मानव का इंतजार कर लेगी, मानव की माँ का मुंह बंद कर दिया और इधर-उधर की बातें कर समय बिताने लगी।

माँ को उसकी बातों में कोई मजा नहीं आ रहा था क्योंकि उनका मन तो न जिन कितनी आशंकाओं से घिरता चला जा रहा था तभी तो वह गंगा की बातों का जवाब केवल हां-हूं में दिए जा रही थी।

शाम ढल आई थी। अभी तक मानव नहीं आया था। माँ मन ही मन कामना कर रही थी कि जब तक गंगा बैठी है, वह न ही आए, लेकिन गंगा थी कि वह जाने का नाम ही नहीं ले रही थी। दरअसल गंगा के मन में था कि वह आज मानव से फाइनल बात कर कल उस व्यक्ति को जवाब दे दे।

अब गंगा का इंतजार खत्म होने को आया क्योंकि मानव घर लौटकर आ चुका था।

मानव को देखते ही गंगा ने अपनी बात जो मानव की माँ से कर रही थी, बीच में ही रोक दी और मानव से बोली, “अरे मानव, अभी दो-तीन दिन पहले एक आदमी आया था, मकान खरीदने के लिए | मैंने उससे कहा कि मैं पहले किसी से पूछ लूँ , फिर बताऊंगी। अब तुम बताओ कि मकान बेचने में फायदा है या अभी और उसे अपने पास रखूं?”

मानव ने कहा, “यूं तो मकान हमेशा पैसा बढ़ाता ही है, पर यदि न फले तो वही मकान बर्तन भी बिकवा देता है | अब देखो न, तुमने वह मकान तेईस  हज़ार में लिया था और अब वही मकान तुम्हें अस्सी हजार दे रहा है। इसका मतलब है कि वह मकान तुम्हें फला है। अच्छा, ये बताओ कि इन अस्सी हजार का तुम करोगी क्या, यदि मैं तुम्हें कह देता हूँ कि वह मकान बेच दो।”

गंगा ने कहा, “जहां मैं किराए के मकान में रहती हूं उसी कालोनी में एक बहुत ही अच्छा प्लॉट मिल रहा है। ये मकान सौ गज में बना हुआ है, जबकि वहां पर जो प्लॉट मिल रहा है, वह बहुत सस्ता भी है और मौके का भी। उस प्लॉट को लेकर मकान बेचने के बाद उस के बाकी पैसे से अपना मकान बनवाऊंगी और ऐसे मुझे किराए से भी मुक्ति मिल जाएगी और अपना मकान भी हो जाएगा। इस मकान को बेचने का विचार मुझे इसलिए भी है कि इसके आसपास का सारा इलाका दूसरे धर्म के लोगों का है, जहां पर हमारा रहना लगभग नामुमकिन है।”

गंगा की बात सुन मानव जरा सोच में पड़ गया। उसकी आंखों के सामने कोई कालोनी आने लगी थी। वह गंगा से बोला, “गंगा जिस कालोनी में तुम प्लॉट  खरीदना चाहती हो, क्या उसके आसपास कोई नाला भी बहता है।”

मानव की बात सुन गंगा एक बार फिर चौंकी। फिर बोली, “हां, उस प्लॉट से थोड़ी दूर पर एक नाला तो है।”

मानव ने कहा, “तो ठीक है, उस मकान को बेच दो और वह प्लॉट  ले लो।”

गंगा ने पूछा, “नुकसान में तो नहीं रहूंगी न।”

मानव ने कहा, “नहीं, कोई नुकसान नहीं है।” और गंगा ने मानव के कहे अनुसार वह मकान अस्सी हजार में बेच दिया और वह प्लॉट ले लिया, जिस पर उसने दो मंजिल मकान बनवाया और एक मंजिल को किराए पर दे दिया।

अब वह किरायेदारनी नहीं, बल्कि किराया वसूलने वाली मकान मालकिन बन गई थी।

मां उन दोनों की बातें सुन मन ही मन उस तांत्रिक के पास जाने का निश्चय कर चुकी थी, जिसका पता उसके बड़े बेटे परेश ने दिया था और जिसने मानव के सामने हाथ जोड़कर प्रणाम किए थे।

और आखिरकार एक दिन...

मां ने अपना काम जल्दी से खत्म किया और उस तांत्रिक के घर के लिए चल दी। तांत्रिक अपने काम लगा था। मां को देखते ही प्रणाम कर बोला, “आइए बैठिए, मैं जानता था आप अपने छोटे बेटे मानव के लिए पूछने के लिए जरूर आएंगी। लेकिन मैं आपको कह चुका था कि मैं मानव के बारे में आपको कुछ नहीं बताऊंगा, लेकिन मैं अब आपको परेश से बात करने के बाद मानव के बारे में एक कहानी के रूप में आपको इशारा जरूर दे दूंगा। आशा करता हूं कि मेरे इशारे के बाद आप मानव के बारे में जरूर कुमानव के मानव  समझ जाएंगी।”

कहानी इस प्रकार है :

एक गांव में एक पंडित जी रहा करते थे | उनके परिवार में पंडित जी और उनका पांच साल का एक बेटा था | दरअसल उसी बेटे को जन्म देते समय पंडित जी की पत्नी का देहांत हो गया था | आसपास की गांवों में पंडित जी की बहुत इज़्ज़त थी, तभी तो आसपास के गांवों में जब भी कोई शुभ कार्य होता था तो इन्हीं पंडित जी को बुलाया जाता था |

माँ बड़ी ही तन्मयता के साथ उस कहानी को सुन रही थी कि तांत्रिक उस कहानी के द्वारा मानव के बारे में क्या कहना चाहता है?

तांत्रिक ने कहानी चालू रखी | 

एक दिन पड़ोस के एक गांव से शादी के लिए पंडित जी को बुलावा आया | पंडित जी ने अपने पुत्र को बुला कर कहा, "बेटे चित्रेश, मुझे पास वाले गांव से शादी का बुलावा आया है, इसलिए मैं कल शाम को यहां से उस गांव में चला जाऊंगा। तुम एक काम करना। सुबह जल्दी उठना, नहाना-धोना और उसके बाद वह जो कनस्तर रखा है, उसमें कुछ लड्डू रखे हैं। उन लड्डुओं में से दो लड्डू एक प्लेट में निकालना और मंदिर में रख देना। हाथ जोड़कर कुछ देर के लिए प्रार्थना करना और फिर उसके बाद खा लेना। इसे भोग लगाना कहते हैं।”

पंडित जी का बेटा बोला, “भोग लगाने का मतलब तो मेहमान को खाना खिलाने से होता है न?”

पंडित जी ने कहा, “हां बेटा, भोग लगने का मतलब खाना खिलाने से ही होता है। परन्तु ये तो भगवान हैं न, ये किसी के घर खाना खाने नहीं जाते, इसलिए हम इनकी मूर्ति के सामने भोजन रखकर इनसे खाना खाने की प्रार्थना करते हैं और ये सोचकर कि इन्होंने उस भोजन में से कुछ भोजन खा लिया है, हम उस भोजन को ग्रहण कर लेते हैं।”

पंडित जी की बातें उस पांच वर्षीय पुत्र के सिर के ऊपर से गुजरती जा रही थीं, लेकिन वह पंडित जी की बातों में हां-हूं कर ऐसे दिखा रहा था, मानो उसकी समझ में सब-कुछ आ रहा हो।

पंडित जी फिर बोले, “अब तो सब-कुछ कैसे करना है, ये तो तुम्हारी समझ में आ ही गया होगा, बेटे चित्रेश।”

चित्रेश ने गर्दन हिलाकर अपना जवाब “हां” में दिया।

बेटे को सब-कुछ समझा-बुझा कर पंडित जी दूसरे गांव को चल दिए। बेटा चित्रेश उस दिन अपनी कुटिया में अकेला सोया। सारी रात उसके दिमाग में यही बात उथल-पुथल मचाए हुए थी कि यदि भगवान हमारा दिया हुआ खाना नहीं खाते तो हम भी क्यों मान लें कि उन्होंने हमारा दिया हुआ खाना खा लिया है और फिर हम उसे “भोग” समझकर खा लेते हैं। चित्रेश के दिल और दिमाग की इस लड़ाई को लड़ते हुए न जाने कब आंख लग गई और वह सो गया।

सुबह-सवेरे ब्रह्म मुहूर्त में ही चित्रेश की आंख खुल गई। वह जल्दी से मंदिर में बने कुएं पर गया और वहाँ रखे पानी से जल्दी से नहा-धो लिया। फटाफट कपड़े पहने और कुटिया में बने मंदिर में जा पहुंचा। अपने पिता के कहे अनुसार उसने कनस्तर खोल उसमें से दो लड्डू निकाले और उन्हें एक प्लेट में रखकर मंदिर में रखी मूर्तियों के सामने जा पहुंचा। प्लेट उसने मूर्ति के सामने रख दी और मूर्तियों के सामने रखे आसन पर बैठ गया।

उसके “बालमन” ने मन ही मन ठान लिया था कि वह आज “भगवान” को खाना खिलाकर ही रहेगा।

वह “भगवान” से मन ही मन प्रार्थना करने लगा कि वे आएं और इन दोनों लड्डूओं को खाएं।

समय बीतता गया!

“भगवान” ने न आना था और न ही वे आए। बच्चे के मन का सब्र का बांध टूटता जा रहा था। प्रार्थना करते-करते समय का पहिया अपनी रफ्तार से चल रहा था।

आधा घंटा बीत गया था।

जब चित्रेश से नहीं रहा गया तो उसने “भगवान” को “गुस्सा” दिखाना शुरू किया और बोला, “देखो भगवान! जल्दी से आकर इन दोनों लड़ुओं को भोग लगाओ और फिर मुझे भी कुछ खाना है। अब जब तक तुम इन दोनों लड़ुओं का भोग नहीं लगाओगे तो फिर मैं कहां खाना खा पाऊंगा? जल्दी से आकर इन दोनों लड़ुओं का भोग लगा लो।”

परन्तु भगवान ने न आना था और न ही वह आए।

थोड़ा समय और बीता। चित्रेश की भूख भी बढ़ती जा रही थी।

आखिरकार चित्रेश जब दो-चार बार प्रार्थना कर चुका और “भगवान” नहीं आए, तब चित्रेश ने अपना पूरा गुस्सा दिखाया और बोला, “देखो भगवान! अब मैं आखिरी बार कह रहा हूं कि या तो चुपचाप आकर खाना खा लो और मुझे भी खाने दो, नहीं तो खाना खिलाना मुझे भी आता है।”

कह कर कुटिया के कोने में पड़ा मोटा-सा डंडा उठा लाया।

अब तो “भगवान” के डरने की बारी थी।

उसके भक्त ने अब आखिरी दांव जो चला दिया था।

आखिर “भगवान” ने भी सोचा कि देखूं तो सही मेरा ये प्यारा सा भक्त करता क्या है?

चित्रेश भूख से व्याकुल हो चुका था | उसे अब सहन नहीं हो पा  रहा था। उसने भगवान को आखिर “ललकार” ही दिया, “देखो भगवान! मैं आखिरी बार भी कह चुका हूँ कि या तो आकर चुपचाप खा लो, नहीं तो मुझे भी खिलाना आता है।” कहकर चित्रेश ने कुटिया के कोने से उठाया वह डंडा जैसे ही चलाने के लिए उठाया, सामने गजराज जी अपने बालरूप में आ गए।

चित्रेश के सिर पर अपनी सूंड से आशीर्वाद देते हुए बोले, “वाह रे मेरे प्यारे से भक्त, मारता भी है, खिलाता भी है।”

चित्रेश हक्का-बक्का सा गजराज को देख रहा था।

गजराज जी ने आगे कहा, “चल बेटा चित्रेश! लाओ, कहाँ हैं वे मेरे “भोग” के दोनों लड्डू। लाओ, खाकर अपने धाम को चलूं।”

चित्रेश यंत्रवत-सा चलता हुआ कटोरी उठा लाया, जिसमें उसने दोनों लड्डू रखे हुए थे। गजराज जी ने उन दोनों लड्डुओं को खाया और वापस उसी मूर्ति में समा गए, जिसमें से निकलकर आए थे।

शाम को पंडित जी दूसरे गांव से अपनी कुटिया पहुंचे। चित्रेश भागकर लुटिया में पानी ले आया। पंडित जी लुटिया  ले हाथ-मुंह धोकर बेटे चित्रेश से बोले, “बेटे, जैसा मैंने कहा था, वैसा ही किया था न।”

“हां, पिता जी, जैसा-जैसा आप बताकर गए थे, मैंने ठीक वैसा ही किया और हां पिता जी, पहले तो मैं हाथ जोड़कर भगवान जी को मनाता रहा, लेकिन जब वे मेरे हाथ जोड़ने से नहीं माने तो फिर मैंने भगवान जी को अपना गुस्सा दिखाया। वह जो डंडा उठाया मारने के लिए, सामने ही मूर्ति में से एक छोटे -से प्यारे-से गजराज निकलकर आए और बोले, “वाह  रे मेरे छोटे-से प्यारे से भक्त, मारता भी है और खिलाता भी।”

पंडित जी का मुंह खुले का खुला रह गया।

“और फिर जानते हैं पिता जी क्या हुआ? गजराज जी ने मेरे हाथों से वह दोनों लड्डू ले लिए और खाकर फिर उसी मूर्ति में चले गए। पंडित जी के हाथों से लुटिया गिर चुकी थी। उन्होंने तुरंत अपने बेटे के चरण पकड़ लिए और बोले, “बेटे चित्रेश, जिस भगवान की मैं जिंदगी भर सेवा करता रहा, तब भी उन्होंने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए और आज पहली ही बार तुमने उनकी सेवा की और उन्होंने तुम्हें दर्शन भी दे दिए। धन्य भाग है तुम्हारे।" कहते हुए पंडित जी की आँखों में आँसू आ गए।

"सच ही तो है यदि भगवान के दर्शन करने ही हैं तो अपने मन को बच्चों के मन जैसे निर्मल बना लो और भगवान के दर्शन कर लो" कहते हुए तांत्रिक बाबा ने मानव की माँ की ओर देखा, "इस कहानी को सुनाने का मेरा मतलब अब तो आपकी समझ में आ ही गया होगा?" तांत्रिक ने पूछा।

मानव की माँ के मुंह से न "हाँ" कहते बन रहा था न "नहीं"। वह कुछ समझ ही नहीं पा रही थी। फिर भी उसने तांत्रिक बाबा से पूछ ही लिया, "इस कहानी को सुनाने का तुम्हारा तात्पर्य क्या था?" तांत्रिक बाबा ने कहा, "वैसे तो मैं आपको कह ही चुका था कि मानव के बारे में तुम्हें कुछ भी नहीं बताऊंगा। पर यदि मैं एक बात बता दूं तो वादा करो कि तुम आगे कुछ नहीं पूछोगी।"

"मैं वादा करती हूं," मानव की माँ ने कहा।

"तो सुनो, मानव एक बहुत ही पवित्र आत्मा है। इसीलिए उसके साथ उसकी रक्षा करने के लिए प्रभु ने एक दिव्य आत्मा को उसके साथ लगा रखा है। वह दिव्य आत्मा जब भी मानव कोई बात कहता है, पूरी कर देती है। इसीलिए मानव से जब भी कोई बात पूछता है तब वही दिव्य आत्मा मानव की आँखों के सामने वही चित्र ला देती है, जो सही होता है। इस बात का पता मानव को नहीं है। इसीलिए मानव ने जो कहा था कि उसे पता नहीं, वह तो वही बता देता है जो उसकी आँखों के सामने आ जाता है, ठीक ही कहा था। वह वह बात बताता है, जो उसकी आँखों के सामने आता है।"

मानव की माँ ने विनती भरे स्वर में पूछा, "वह दिव्य आत्मा ही है न, कोई अला-बला तो नहीं।"

तांत्रिक बोला, "यदि कोई अला-बला होती तो मैं उसी दिन उसे यहीं पकड़ लेता, जिस दिन आप परेश के कहने पर मानव को मेरे पास लेकर आई थी। आपने देखा होगा कि मैंने भी मानव को खड़े होकर हाथ जोड़कर प्रणाम किया था।

दरअसल, उस दिन मैंने मानव के साथ खड़ी उस दिव्य आत्मा को देख लिया था और मैंने मानव को नहीं, बल्कि उस दिव्य आत्मा को प्रणाम किया था।"

माँ तांत्रिक बाबा की बातों से संतुष्ट होकर चुपचाप घर लौट चली।

मानव की माँ की स्थिति "न इधर की और न उधर की" वाली थी। वह तो बस अपनी आँखों से मानव की स्थिति को और कानों से मानव की बातों की सुनती रहती थी ऐसे में एक दिन गांव से मानव के मामा आए।

और मानव के मामा ने मानव से किस बात की शर्त लगाई,

पढ़िए "वो मैं नहीं" के तीसरे भाग में.... 

आज के लिए इतना ही.... 

नहीं दिए और आज पहली ही बार तुमने उनकी सेवा की और उन्होंने तुम्हें हस्सीन भी दे दिए। धन्य भाग है तुम्हारे।” कहते हुए पंडित जी की आंखों में आंसू आ गए।

“सच ही तो है यदि भगवान के दर्शन करने ही हैं तो कहते हुए तांत्रिक बाबा मन जैसे मिलने बना दो और भगवान के दर्शन कर लो” कहते हुए तांत्रिक बाबा ने मानव की मां की ओर देखा, “इस कहानी को सुनाने का मेरा मतलब अब तो आपकी समझ में आ ही गया होगा?” तांत्रिक ने पूछा।

मानव की मां के मुंह से न “हां” कहते बन रहा था न “नहीं”। वह कुछ समझ ही नहीं पा रही थी। फिर भी उसने तांत्रिक बाबा से पूछ ही लिया, “इस कहानी को सुनाने का तुम्हारा तात्पर्य क्या था?” तांत्रिक बाबा ने कहा, “वैसे तो मैं आपको कह चुका था कि मानव के बारे में तुम्हें कुछ भी नहीं बताऊंगा। पर यदि मैं एक बात बता दूं तो वादा करो कि तुम आगे कुछ नहीं पूछोगी।”

“मैं वादा करती हूं,” मानव की मां ने कहा।

“तो सुनो, मानव एक बहुत ही पवित्र आत्मा है। इसीलिए उसके साथ उसकी रक्षा करने के लिए प्रभु ने एक दिव्य आत्मा को उसके साथ लगा रखा है। वह दिव्य आत्मा जब भी मानव कोई बात कहता है, पूरी कर देती है। इसीलिए मानव से जब भी कोई बात पूछता है तब वही दिव्य आत्मा मानव की आंखों के सामने वही चित्र ला देती है, जो सही होता है। इस बात का पता मानव को नहीं है। इसीलिए मानव ने जो कहा था कि उसे पता नहीं, वह तो वही बता देता है जो उसकी आंखों के सामने आ जाता है, ठीक ही कहा था। वह वही बात बताता है, जो उसकी आंखों के सामने आता है।”

मानव की मां ने विनती भरे स्वर में पूछा, “वह दिव्य आत्मा ही है न, कोई अला-बला तो नहीं।”

तांत्रिक बोला, “यदि कोई अला-बला होती तो मैं उसी दिन उसे वहीं पकड़ लेता, जिस दिन आप परोक्ष के काले पर मानव को मेरे पास लेकर आई थी। आपने देखा होगा कि मैं भी मानव को खड़े होकर हाथ जोड़कर प्रणाम किया था।

दरअसल, उस दिन मैंने मानव के साथ खड़ी उस दिव्य आत्मा को देख लिया था और मेरे मानव को नहीं, बल्कि उस दिव्य आत्मा को प्रणाम किया था।”

मां तांत्रिक बाबा की बातों से संतुष्ट होकर चुपचाप घर लौट चली।

मानव की मां की स्थिति “न इधर की और न उधर की” वाली थी। वह तो बस अपनी आंखों से मानव की स्थिति को और कोनों से मानव की बातों को सुनती रहती थी ऐसे में एक दिन गांव से मानव के मामा आए।

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