शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

book book three

 इन मामा को मानव इतना प्यार करता था कि उन पर वह तीनों लोकों को कुर्बान कर सकता था।

दरअसल ये मामा जी कुछ परेशानियों में थे। इनकी पोटली में रखे कुछ रुपए घर में से कहीं खो गए थे। जब इन्हें पता चला कि मानव के पास “कुछ ऐसा” है, जिसके बल पर वह वहीं बैठे सब कुछ बता देगा तो उन्होंने मानव को पटाना शुरू किया।

“बेटे मानव, यदि तुम मेरा एक काम कर दो तो मैं तुम्हें एक बहुत-बड़ा इनाम दूंगा।”

“क्या मामा जी, तुम अभी भी मुझे नहीं समझे। अरे, तुम्हारे चेहरे पर तो एक मुस्कान लाने के लिए जितने रुपयों  के बारे में तुम पूछना चाह रहे हो, उससे भी हजारों-लाखों गुना तुम पर वार कर तीनों लोकों में बांट दूं।”

मानव की मां और मामा का मुंह खुले का खुला इसलिए रह गया क्योंकि उन्होंने अभी तक तो ये पूछा भी नहीं था कि उसे किस प्रश्न का उत्तर देना है और उसने बता भी दिया कि वे लोग हुए रुपयों  के बारे में पूछना चाह रहे हैं।

मामा जी ने चुटकी लेने के लिए मानव से पूछा, “आखिर कितने रुपयों  की बात कर रहे हो? कितने रुपए खोए होंगे।”

“मामा जी, जो मुझे दिखाई दे रहे हैं, वह कपड़े की एक छोटी-सी थैली में लिपटे हुए दिखाई दे रहे हैं और जिनकी संख्या सात से दस तक हो सकती है।”

“सौ या हजार?” मानव की मां ने पूछा।

“सौ की बात करो मां? अभी उन्हें हजार बनाने के लिए तो मामा ने उन्हें निकाला था। बाजार से खेतों के लिए बीज लेने जाना था।”

मानव की मां ने अपने भाई यानी मानव के मामा से पूछा, “क्यों भाई? कितने थे?”

“कह तो तेरा बेटा ठीक ही रहा है।” मामा के मुंह से निकला।

“तो फिर निकालो मेरा इनाम।” कहकर मानव के चेहरे पर मुस्कान फैल गई।

“चलो, अगली बार आओ तो दे देना, भूलना मत।” कहकर मानव दोनों को अवाक्-सा छोड़ बाहर की ओर चल दिया।

“बहना।” मानव के “ये मामा” मानव की मां को इसी शब्द से संबोधित करते थे, “मुझे लगता है मानव किसी “ऊपरी हवा” के सम्पर्क में है। इसे किसी झाड़-फूंक वाले को क्यों नहीं दिखाती? या यूं करियो, जब भी तेरा गांव आने का मौका मिले, इसे अपने साथ लेती आइयो। मैं इतने किसी झाड़-फूंक वाले को ढूंढ़कर रखूंगा।”

“नहीं भाई, इसकी कोई जरूरत नहीं पड़ेगी।” मानव की मां ने कहा।

“क्यों, क्या हुआ? क्या किसी झाड़-फूंक वाले को इसकी दिखा चुकी हो क्या?”

“हां, वो तुम्हारा भांजा है न परेश, बस वह ही एक ऐसे झाड़-फूंक वाले को जानता था। इसे तो लेकर नहीं, हां, मैं खुद ही गई थी उसके पास इसके बारे में पूछने के लिए।”

“तो उसने क्या बताया?”

“वह तो बता रहा था कि मानव के ही कोई “पितृ” हैं जो अपने किसी “खास काम” को करवाने के लिए उसके साथ आ लगे हैं। जब उन ‘पितृ’ का वह “खास काम” समाप्त हो जाएगा, वह खुद ही इसको छोड़कर चले जाएंगे।”

“तो उन्हीं से कहकर उन “पितृ” से इनका पीछा छुड़वा देती।”

“मैंने भी यही कहा था, तब उन्होंने बताया कि यदि कोई भी उनसे पीछा छुड़वाने की कोशिश भी करेगा, तब वह उसका तो नहीं, लेकिन मानव की हालत बद से बदतर बना देंगे।”

“तो इसका मतलब इसका कोई इलाज नहीं।”

“हां भाई लगता तो ऐसा ही है।”

तभी मानव घर लौटता है। अब मामा जी के दिमाग में एक बात और आती है कि कहीं वह तांत्रिक भी झूठ तो नहीं बोल रहा? उन्होंने जैसे कहा—

“अच्छा एक बात और बता दे ये मेरे खोये हुए रुपए मिलेंगे कहां?”

“मामा जी, तुम्हारे घर में एक पीछे वाला कमरा भी है, जिसे तुमने गोदाम बना रखा है और वहां पर गेहूं से भरी बोरियां भी रखी हैं। उन्हीं बोरियों में सीधे हाथ की तरफ किवाड़ के पास ऊपर से पांचवीं बोरी के पीछे वह पोटली मिल जाएगी।”

“लेकिन वह पोटली वहां पहुंची कैसे?”

“बस मामा जी, ये मत पूछो, ये मैं नहीं बता पाऊंगा।” मानव ने कहा।

“बता नहीं पाओगे या बताना नहीं चाहते।”

“चाहे कुछ भी समझ लो।”

इतनी बात कहकर मानव वहां से खड़ा हो गया। अन्दर वाले कमरे में जाकर मानव ने मां को आवाज लगाई।

मां के कमरे में प्रवेश करते ही मानव बोल उठा “मुझे लगता है कि इन्हीं के किसी बच्चे ने वह पैसे चोरी कर वहां छुपाए हैं।”

मां ने मानव को चुप रहने के लिए कहा। बोली: “अगर तुम्हारे मामा जी को पता चल गया कि किसी बच्चे ने वह पैसे चुराकर वहां छुपाए हैं तो वह गुस्से में क्या कर बैठेंगे, ये वो खुद भी नहीं जानते और अगर पैसे वाकई तुम्हारी बताई जगह पर मिल गए तो समझ लेना कि फिर तो वे तुम्हें भगवान से बड़ा दर्जा दे देंगे और तुम्हारी हर बात पर आंख बंद कर विश्वास कर लेंगे।”

“तो फिर क्या किया जाए?”

“कुछ दूसरा सोचो।”

“कह देता हूं कि चूहा उठाकर ले जा रहा था कि उसके मुंह से वह पोटली वहीं रह गई।”

“हां, यह फिर भी ठीक रहेगा।” कहकर मानव की मां कमरे से बाहर निकल आई।

तभी...

लगभग मानव की मां की ही एक हमउम्र औरत मानव की मां का नाम लेते हुए मानव के घर पहुंची।

“अरे सुहासिनी, कहां मर गई रे डेढ़ (डेढ़ एक प्यार की गाली जैसी होती है)।”

“मौसी जी नमस्ते।”

“नमस्ते बेटे, क्या हो रहा है?”

“कुछ नहीं मौसी जी, बस, ऐसे ही मामा जी गांव से आए हुए थे, उनके कुछ रुपये खो गए थे, बस, उन्हीं रुपयों के बारे में बता रहा था।”

“तू ये काम कब से करने लगा रे डेढ़ के बीज।”

“अरे नहीं मौसी जी, मैं कोई पेशेवर थोड़े ही करता हूं। बस, तुक्का भिड़ा देता हूं। अगर सही जगह लग जाए तो ठीक, नहीं तो तुक्का तो है ही है।”

“अच्छा चल, अब तू अपना काम कर।” मानव की मां ने कहा।

मानव मां का इशारा समझ बाहर की ओर चल दिया।

“अरे कुन्दन, तू भी आया हुआ है।”

“हां बहना, वैसे ही सुहासिनी की बड़ी याद आ रही थी, सो चला आया।”

“और इसी से मिलकर वापिस चला जाता, तेरे को क्या पड़ी है कि तेरी दूसरी बहना भी यहां रहती है, उससे भी मिल ले।”

“ऐसी बात नहीं है बहना। बस, रुपये खो जाने के चक्कर में भी थोड़ा सा परेशान हो रहा था | भगवान करे मेरे बेटे मानव की बात बिल्कुल सच निकले और मेरे खोये हुए रुपये मिल जाए।”

“ऐसा ही होगा, मेरा मन कह रहा है।” मौसी जी ने कहा।

मानव की मां चाय बनाने लगी।

मानव के कुन्दन मामा बोले, “अरी बहना, बस चाय पीकर मैं चलूंगा। शाम हो चली है। समय से घर पहुंच जाऊं तो ठीक रहेगा।”

मौसी जी ने भी हां में हां मिलाई।

दरअसल इन मौसी जी की कहानी भी बड़ी अजीब थी।

यह मानव की मां की सगी बहन नहीं थी।

हुआ ये था कि मानव का परिवार जिस मकान में रहता था, उसी के बराबर में एक और मकान था। उस दिन हल्की-हल्की बारिश हो रही थी।

“बारिश का मौसम हो और चाय-पकौड़े न हों।” मानव के पापा ने मानव की मां से कहा।

“चाय तो बना दूं यदि घर में चीनी हो तो।”

“तो कौन-सी बड़ी बात है, दो मिनट में ला देता हूं।” कहकर मानव के पापा चल दिए।

मां ने चाय का पानी रख दिया और पास ही रखे एक बर्तन में बेसन घोलने लगी। मां ने आलू-प्याज और पालक इत्यादि काट लिया था और गैस पर कढ़ाई भी रख दी थी।

तभी हल्के-से भीगते हुए मानव के पापा ने प्रवेश किया।

“अरी भाग्यवान। एक काम कर सकती हो।”

“बोलो-अब क्या नया बनवाना है?”

“नहीं, नहीं! नया कुछ नहीं बनवाना है। बस एक विनती है।”

“विनती-गिनती की बात छोड़ो। बताओ, काम क्या है?”

“अगर तुम ये चाय-पकौड़े बनाना छोड़ चार रोटी बना दो।”

“ये अचानक चाय-पकौड़े के कार्यक्रम से रोटी का कार्यक्रम कैसे बन गया?”

“ये मैं अपने लिए नहीं, बल्कि एक बहुत-ही गरीब-सी औरत, वह बराबर वाला मकान है न उसी के बरामदे में बैठी भीगने से कांपती हुई अपने तीन बच्चों के साथ बैठी है, उसी के लिए बनवा रहा था। उसको और उसके बच्चों को खिला दिया, सोचूंगा मैंने चाय-पकौड़े खा लिए।”

“पहले तुम्हारे लिए चाय-पकौड़े बना देती हूं, फिर उसके लिए भी चार रोटी बनाकर ले जाऊंगी।”

मां ने मानव के पिता के लिए चाय-पकौड़े बनाकर चार रोटियां बना ली थीं।

रोटियों को एक थाली में रख और एक कटोरी में थोड़ा-सा साग रखकर मानव की मां चल पड़ी।

पास वाले मकान के बरामदे के सामने खड़ी हो वह उस औरत और उन बच्चों को देख रही थी जो उसी की और टुकुर-टुकुर देख रही थी। औरत और उसके बच्चे भीगे होने के कारण कांप रहे थे।

“ले बहना, खा ले, भूख लग रही होगी।” मानव की मां ने थाली आगे करते हुए कहा।

“बस बहना, हम तो खा-पी कर घर से निकले थे। मेरे “पति” को किसी काम से किसी ऑफिस में जाना था। बच्चे बाग में खेलने की जिद कर रहे थे। तो वे गाड़ी से हमें यहीं उतारकर अपने काम पर चले गए। अभी गाड़ी लेकर आते ही होंगे।”

मानव की मां को लगा शायद वे औरत “भिखारी” ही नहीं, “भूख” के कारण पागल भी हो गई है।

“अच्छा बहना, एक काम कर। पास में ही मेरा घर है, वहां चलकर बैठते हैं। यहां भीगने के कारण ठंड में तुम भी और ये तीनों बच्चे भी कांप रहे हैं।”

“मां-मां, ये कौन हैं?” उन तीनों बच्चों में से सबसे छोटे बच्चे ने पूछा।

“मैं तेरी मौसी हूं।” मानव की मां ने कहा और उस औरत का हाथ पकड़कर खड़ा करने लगी।

तीनों लोकों में एक बात बहुत प्रसिद्ध है कि जहां दो औरतें मिलीं...

मानव की मां उन दोनों बच्चों में से एक को अपनी गोदी में और एक हाथ में थाली लिए उस औरत को अपने घर ले आई।

वहां मानव के मां-बाप और “औरत” ने बैठकर चाय-पकौड़े खाए।

मानव के पूछने पर कि ये कौन हैं, मानव की मां ने उस औरत का परिचय भी “मौसी” कहकर कराया।

बस वह दिन था और आज का दिन है।

मानव का स्कूल से लौटना और बस्ता रखकर मौसी के घर चले जाना। जहां उसी की उम्र के तीन बच्चे और थे।

इसीलिए सारी जिंदगी बस वह एक ही बात कहता रहा कि भगवान कृष्ण की ही नहीं, उसकी भी दो माएं हैं, एक वो जिसने उसे पैदा किया और एक वो, जो उसे पाल रही हैं।

थोड़ी देर बतियाने के बाद मौसी जी और मामा जी भी चाय पीकर मानव की मां से विदा ले, चल दिए।

मानव अपनी मौसी के साथ पहले तो मामा जी को बस स्टैंड छोड़ने गया, फिर वहीं से ही मौसी के साथ ही उनके घर चल दिया। मानव की मां समझ गई थी कि मानव इस समय कहां गया होगा।

कुछ दिनों के बाद एक पोस्टकार्ड (चिट्ठी) आया। भेजने वाले उसके मामा जी थे। पोस्टकार्ड में लिखा था कि उनके रुपए मिल गए हैं और जहां मानव ने बताए थे, वहीं मिले। यह पोस्टकार्ड मानव की मां को उस समय मिला, जब मौसी तो मानव की मां के पास थीं और मानव उनके बच्चों के साथ उनके घर पर।

मानव की ये मौसी भी इत्तिफाक से मानव के ददिहाल के पास के एक गांव की ही रहने वाली थीं। इसलिए “गुहांड़ी” (पास-पास के गांव के रहने वाले लोग गुहांड़ी कहलाते हैं) तो हो ही गई थीं। बस फर्क एक ही था-मानव की ये मौसी “जाटनी” थीं। जबकि मानव का परिवार ब्राह्मण वर्ग से संबंध रखता था। फिर भी दोनों “औरतों” ने पहली बार मिलने पर कसम खाई थी कि चाहे कुछ भी हो जाए, दोनों सगी बहनों की तरह रहेंगी और एक-दूसरे के सुख-दुख में हाथ बंटाती रहेंगी।

तभी से वे दोनों “धर्मबहनें” बन गई थीं।

आज वे “धर्मबहनें” मानव को लेकर इसलिए परेशान हो गई थीं कि आखिर ऐसा क्या है जो मानव की सारी बातें सच हो जाती हैं।

इस पर मौसी जी का कहना था—देख सुहास (मौसी जी मानव की मां को संबोधित करती हुई बोलीं) कई बार ऐसा भी तो होता है कि तुक्का भी तो लग जाता है।

“बहना वो तो तेरी बात ठीक है, पर तुक्के भी कितने लगेंगे? पहले गंगा के मामले में, अब मेरे भाई के बारे में।”

“मैं तो कहूंगी कि सुहासिनी, इसे तुक्का समझकर दिल से मत लगा, तीर समझकर दिमाग से निकाल दे। वक्त देख, वक्त की धार देख, अभी बहुत समय पड़ा है।” कहकर मानव की मौसी अपने घर के लिए चल दी।

मानव की मां की बातों ने मौसी के दिमाग को भी हिलाकर रख दिया था। मानव की मौसी जी अपने घर पहुंचकर उस कमरे में जा बैठी, जहां सारे बच्चे खेल रहे थे। मानव की मौसी का ध्यान केवल मानव पर ही लगा हुआ था।

समय बीत रहा था।

ऐसे में, एक दिन...

मौसी के गांव से उनके एक भाई आए। जाट जमींदार थे, लंबे-चौड़े, हट्टे-कट्टे। घर में सब चीजें की मौज-मस्ती थी। सारा गांव उनकी इज्जत करता था। वे सरपंच के चुनाव में खड़ा होना चाहते थे | वे इसी बात का प्रचार करने अपनी बहन के घर आये थे | 

दरअसल बहन का तो बहाना था | सरपंच का चुनाव लड़कर वे राजनीति में घुसना चाहते थे और इसीलिए वे यहाँ अपनी बहन के घर रुककर राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े नेताओं से मिलना चाह रहे थे। मामा जी को मौसी जी के घर रुके तीन दिन हो चुके थे, जब एक दिन मौसी जी ने मामा जी को मानव से संबंधित सभी बातें बताईं।

उसी शाम, जब मानव मौसी जी के घर आया।

“क्यों बेटे, सुना है जो तुम कहते हो सब सच हो जाता है।”

“क्यों मामा जी, मेरी खिल्ली उड़ा रहे हो? ऐसा तो कुछ नहीं है।”

“अच्छा मेरे बारे में बता। मैं राजनीति में जाना चाहता हूं। क्या मैं वहां सफल भी हो पाऊंगा या नहीं।”

मानव ने दो मिनट आंखें बंद की। फिर बोला : “मामा जी, कुछ समय के लिए तो तुम सफल हो सकते हो। लेकिन आगे जाकर वही राजनीति तुम्हारे लिए “फांसी का फंदा” साबित न हो जाए।”

मामा जी तो जैसे ऊपर से नीचे गिरे।

कहां तो वे देश की राजनीति में सबसे ऊपर बैठने का ख्वाब पाले हुए थे और कहां मानव यह बता रहा है कि राजनीति ही मेरे लिए “फांसी का फंदा” न बन जाए।

उन्होंने मानव का इम्तहान लेने के लिए एक और बात पूछने की सोची।

उन्होंने कहा, “अच्छा बेटे, मैंने अपने खेत में क्या उगा रखा है। बता देगा तो मान जाऊंगा।”

“मैं क्या जानूं कि कौन सी फसल बो रखी है।”

“तू ये तो जान नहीं पाया कि अब फसल कौन-सी बो रखी है और मेरा राजनीतिक भविष्य बताएगा कि राजनीति ही मेरे लिए “फांसी का फंदा” साबित होगी।”

मामा जी की बात मानव को भूल-सी लगी। उसने आंखें बंद कर लीं। थोड़ी देर बाद उसने मामा जी से पूछना शुरु  किया| 

“मामा जी तुम्हारा खेत वही है न जिसके एक कोने में बिजली का खंभा खड़ा है | "

"बिजली का खम्बा?" मामा  जी बड़े जोर से हंसे | 

“हां, बिजली का खंभा।” मानव ने कहा।

मामा जी ने जवाब दिया, “यदि तूने अपनी ये ढ़कोसलेबाजी बंद नहीं की तो मैं तेरी वो हालत करूंगा कि तू भी याद रखेगा। बंद कर अपनी ये ढ़कोसलेबाजी।”

मानव ने कहा, “मामा जी, यद्यपि तुमसे बहस करने की मेरी हिम्मत नहीं है फिर भी मैं दावा कर सकता हूं कि तुम्हारे खेतों में एक खंभा जरूर खड़ा है।”

मामा जी ने कहा, “यदि तुमने मुझे खंभा दिखा दिया तो मैं तुम्हें एक हजार रुपये दूंगा और यदि खंभा नहीं निकला तो तुम मुझे केवल सौ रुपये ही दे देना।”

मानव ने कहा कि उसे मंजूर है।

मामा जी ने कहा, “बाद में ये मत कहना कि मैं मजाक कर रहा था।”

“नहीं, मैं नहीं कहूंगा, हारने पर सौ रुपये देना मंजूर है मुझे।”

“अरे रामू ,” उन्होंने अपने ड्राइवर को कहा, “चल तेरे तो सौ रुपये का इंतजाम हुआ, चल गाड़ी निकाल।”

“मैं अपनी मां को तो बता आऊं,” मानव ने कहा।

“देखा बहना, मैं न कहता था, अब सौ रुपये के कारण डर गया।” मामा जी ने कहा, “घर का तो बहाना है, कह देगा कि मां ने जाने ही नहीं दिया, मैं क्या करता?”

“अच्छा बाबा, चलो मैं चलने के लिए तैयार हूं और हां, मौसी जी, मां को खबर भिजवा देना कि मैं मामा जी के साथ गांव गया हूं, हजार रुपए जीतने।” मानव ने कहा।

“ये तो वहीं चल कर देखेंगे कि मैं हजार रुपये हारता हूं या तुम सौ रुपए।” मामा जी ने कहा।

मानव ने अपने साथ मौसी जी के बड़े बेटे को भी साथ ले लिया था। चारों गांव पहुंचे तो रात के बारह बज रहे थे।

“मामा जी खेत में अभी चलेंगे या सुबह?”

“सुबह तक किसे इंतजार, अभी चलेंगे।”

तभी मामा जी के छोटे भाई अचानक से जग खड़े हुए।

“क्या हुआ भाई? तुम तो दो दिन बाद आने वाले थे।”

“अरे बल्लू, हमारे खेत में कोई बिजली का खंभा खड़ा हुआ है क्या?

“नहीं, मुझे तो याद नहीं। वैसे, हां जहां तक मुझे याद है कोई खंभा नहीं है।”

“और ये मानव कह रहा है कि हमारे खेत में एक खंभा गड़ा हुआ है।” कहकर दोनों मामा जी हंस दिए।

“खंभा अभी देखोगे या कल।” मानव ने फिर दोहराया।

“आज और अभी, चल बल्लू, देखें तो सही मैं हजार रुपए हारता हूं या इससे सौ रुपए जीतता हूं।”

“चलो, हम भी देखें, जहां हम रात-दिन रहते हैं और हमने आज तक वहां कोई खंभा नहीं दिखा, वहां इस छोकरे ने रातों-रात खंभा कहां से खड़ा कर दिया।” मामा जी का दूसरा भाई बल्लू बोला।

जब वे चारों रात के अंधियारे में खेतों की ओर चल दिए और कहना न होगा कि वहां खेत के एक किनारे पर खंभा खड़ा हुआ था। 

“अरे, ये कहां से आ गया?” मामा जी ने आश्चर्य से आंखें फाड़ते हुए कहा।

“मामा जी, बहाना नहीं, निकालो हजार रुपए।” मानव भी आश्चर्यचकित था कि उसे कहां से पता चला कि यहां कोई खंभा खड़ा हुआ है। यदि यह खंभा नहीं मिलता तो वह सौ रुपये कहां से लाता? सोचकर मानव को ठंडक में भी पसीने ने भिगो दिया था।

जब ये खबर मौसी जी तक पहुंची तो मौसी जी को यकीन हो चला था कि कोई ‘प्रेतात्मा’ मानव के साथ लगी हुई है, तभी तो वह किसी भी बात को किसी यकीन के साथ बोल देता है। यही बात उन्होंने मानव की मां को भी कही।

दिन बीतते गए।

मां यह देखा करती थी कि मानव जब भी कोई बात कहता, वह देर-सबेर कैसे न कैसे पूरी हो ही जाती थी।

ऐसे में एक दिन...

मौसी जी के पेट में बड़ा ही भयंकर दर्द उठा।

मानव की मां ने मानव से पूछा तो मानव ने कह दिया कि पेट में जख्म होने के कारण दर्द उठ खड़ा हुआ है और अगर जल्द ही इलाज नहीं कराया गया तो कैंसर होने की पूरी संभावना हो सकती है।

मानव की मां मानव की मौसी को डॉक्टर को दिखाने ले गई। वहां पर डॉक्टर ने भी यही बताया, जो मानव ने कहा था। डॉक्टर ने उन्हें एक प्राइवेट क्लीनिक में ले जाने की सलाह दी।

मौसी जी को उस क्लीनिक में दाखिल करा दिया गया।

दो दिन बाद डॉक्टर ने मानव की मां को बताया कि अगर जल्द ऑपरेशन नहीं किया गया तो पेट का जख्म फट सकता है और फिर बचने-बचाने का कोई चांस नहीं बन पाएगा।

बात मानव तक पहुंची।

जिस दिन ऑपरेशन था, उस समय से थोड़ी देर पहले ही मानव वहां पहुंचा था।

“अरे मौसी जी, घबराने की जरुरत नहीं है, छियासी साल से पहले तो तुम्हें जाने न दूं और छतासीवें साल में रोक न सकूं।”

इतनी देर में डॉक्टर साहब और नर्स ने कमरे में प्रवेश किया।

“क्यों बहन जी, ठीक हो न।”

“हां डॉक्टर साहब।”

“कोई घबराहट तो नहीं हो रही है न।”

“नहीं कोई घबराहट नहीं। जब तक मेरा ये बेटा मेरे पास है न, मुझे कोई घबराहट नहीं।” मौसी जी ने डॉक्टर साहब को मानव के बारे में बताया। मानव मन ही मन सोच रहा था कि उसने अपनी मौसी जी को कह तो दिया, मगर खुदा न खास्ता उन्हें कुछ हो गया तो? वह कोई भगवान तो है नहीं। अब कह दिया, सो कह दिया। देखा जाएगा जो कुछ होगा।

मानव अपनी मां और मौसी जी के बेटे के साथ उसी कमरे में रुक गया। समय बीतता गया...एक घंटा...दो घंटे...और चार घंटे...

अब मानव को भी लगने लगा था कि डॉक्टर आएंगे और कह देंगे, “आई एम सॉरी।”

“पहले मौसा जी और अब मौसी जी। क्या होगा इन चारों भाई-बहनों का?”

मानव बड़े ही सोच-विचार में फंस गया। तभी... डॉक्टर ने थके चेहरे के साथ कमरे में प्रवेश किया।

तीनों के मुंह डॉक्टर के चेहरे को देख रहे थे।

“बड़ा ही “क्रिटिकल ऑपरेशन” था। ऐसे ऑपरेशन बहुत ही कम होते हैं।”

परन्तु यहां तीनों को डॉक्टर की बातों में कोई आनन्द नहीं आ रहा था। डॉक्टर साहब सब कुछ समझ गए। बोले, “यदि कुछ गलत हो गया होता तो मैं कमरे में घुसते ही कह देता—आई एम सॉरी।” मगर मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा, मतलब ऑपरेशन सक्सेस रहा, मरीज अब ठीक है, मगर आप उससे कल ही मिल पाएंगे क्योंकि टांके अभी कच्चे हैं और हां, ये मानव कौन है?

मानव की मां का चौंकना स्वाभाविक था।

“जी हां, बताइए, मैं ही मानव हूं।”

“ये तो बस ऐसे ही पूछ रहा था। हुआ ये था कि, जब हम उनका ऑपरेशन करने लगे तो मैंने उनसे पूछ लिया कि क्या तुम्हें ऑपरेशन से डर नहीं लग रहा तो जानते हो वे क्या बोली?

उन्होंने बताया कि मानव ने मुझे छियासी साल तक जिंदा रहने का “आशीर्वाद” दिया हुआ है, लिहाजा मुझे कुछ हो ही नहीं सकता।

मानव सोच रहा था कि ये उसके कहने के बाद ही ऐसा हुआ है या मौसी जी की विल पावर ने उन्हें बचाया है।

अगले दिन मौसी जी को जब अपने कमरे में लाया गया तो वहां मानव खुद उनका इंतजार कर रहा था। जब भी वह अपनी मौसी को देखता था तो उन्हें गले लगा लेता था, परन्तु आज...डॉक्टर ने इशारे से मना कर दिया था। चलो कोई बात नहीं आज नहीं तो दो दिन बाद ही सही। मानव अपनी मौसी को चार दिन बाद ले गया।

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