रविवार, 23 अगस्त 2015

भूख कैसी कैसी

                                                                    भूख कैसी कैसी                                                  

भूख ! भूख  योँ  तो कई तरह की होती है जैसे शारीरिक भूख, मानसिक भूख इत्यादि, लेकिन इन सबसे बड़ी भूख होती है पेट की भूख! यह भूख ऐसी होती है, जो इंसान को सच्चाई के रास्ते से हटा कर बड़े से बड़ा अपराध करने को मजबूर कर देती है. यह भूख हमारे इस दुनिया में कदम रखते ही शुरू हो जाती है और तब तक रहती है जब तक हम इस दुनिया से कूच नहीं कर जाते। इस भूख की सबसे मजेदार बात है कि यह समय-समय पर अपना रूप भी बदलती रहती है जैसे दुनिया में कदम रखते ही इस भूख को शांत करने के लिए माँ के दूध की आवश्यकता होती है तो बुढ़ापे में जब दांत नहीं होते तब दूध-दलिया रोटी की जगह ले लेते हैं क्योंकि तब भी मुँह में दांत नहीं होते।

और हमारा सारा जीवन इसी भूख को शांत करने में लगा रहता है।
कोटला फ़िरोज़शाह का हरा-भरा बाग़। चारों तरफ हरियाली और उसी हरियाली के नीचे लेते कुछ नवयुवक। थका-हारा चेहरा और सिरहाने की जगह वह फाइल, जिसमें उनकी डिग्री, शंसा और प्रशंसा पत्र के साथ-साथ अन्य कागजात, जो उन्हें नौकरी दिलाने'में सहायक हो सकते थे। आज भी वे इस आशा के साथ जगे होंगे कि वे इन कागजात के बल पर कहीं न कहीं नौकरी पा सकने में सफल हो जाएंगे। सुबह से ही दफ्तर-दफ्तर घूमते थक गए होंगे और जब सफल नहीं हो पाये तो सुस्ताने के लिए यहाँ चले आये होंगे जैसे मैं चला आया। मैं भी कौन-सा उनसे अलग था? मेरी आँखों में भी सुबह एक चमक थी कि मैं आज जैसे भी हो नौकरी पा कर रहूंगा। अपनी डिग्रियां और चेहरे पर फीकी हंसी के साथ मुँह में छिपे सर-सर के शब्द मेरी भूख की व्यथा को छुपा नहीं पा रहे थे। तभी तो पांच रुपए के छोले-भठूरे की प्लेट लेकर यहाँ चला आया था।
घर से लाई पानी की बोतल से दो घूँट पानी निकाल कर पिया।  यह सोच कर कि जिंदगी की इस लड़ाई में मैं अकेला ही नहीं  हूँ, मन को कुछ ढाढ़स बंधाया और समय बर्बाद ना हो, उठ कर चल दिया।
 बाहर निकल कर जेब में हाथ डाला, दफ्तर-दफ्तर  घूमते-घूमते चालीस रुपए  खर्च हो चले थे।  घर से पचास का नोट माँ के हाथ से लेते हुए बड़ी शर्म आ रही थी। माँ भी बिचारी क्या करती, इधर-उधर से बचा-बचा कर जो भी जोड़ती थी, मेरे दफ्तर-दफ्तर  घूमने की भेंट चढ़ जाता  था। महंगाई के इस ज़माने में पिता जी की तनख़्वा भी तो इतनी न थी कि रोज़-रोज़ मुझे पचास-पचास के नोट मिल पाते। आखिर भगवान को कोसने लगा कि क्यों न मुझे भी अम्बानी या मित्तल जैसे परिवार में पैदा किया कि आज ये दिन मुझे देखने को तो नहीं मिलते। लेकिन फिर अपने को कोसने लगा कि यदि मैं आज इस परिवार में नहीं होता तो कोई और तो होता! बस स्टैंड आ चुका था।
बस आई और चली गयी। हिम्मत ने साथ छोड़ दिया कि या तो ये दस रुपए किराए पर खर्च कर दूँ या फिर शाम को घर जाने के लिए रख लूँ। फैसला किया कि दिन में चाहे जितना दूर जाना पड़े, पैदल ही चलूँगा और दूसरे दफ्तर के लिए चल दिया।
दिल्ली गेट ! भीड़ भरा इलाका ! कोने पर ही जय प्रकाश नारायण अस्पताल ! गेट पर खड़ी भीड़ ने ध्यान खींचा। पास जाकर देखा तो एक नौजवान स्ट्रेचर पर लेटा था।  पास खड़े परिजनों ने बताया कि नौकरी न मिलने पर जहर खा लिया था। उफ्फ ! पेट की भूख को शांत करने का बहाना न मिला तो खुद को शांत कर लिया। जिंदगी की हार ! मौत की जीत ! न बाबा न ! मैं तो ऐसा नहीं करूंगा। जिंदगी से लड़ूंगा ! लड़ूंगा अपनी जिंदगी से ! भूख से व्याकुल हो कर अगर मैंने ऐसा कदम उठाया तो मेरे परिवार का क्या होगा? कल्पना मेरे शरीर में सिहरन दौड़ा देने के लिए काफी थी। मोटरों-बसों की चिल्ल-पों  ने मेरा ध्यान भंग किया। मैं तो नौकरी की तलाश में हूँ। मिलेगी और जरूर मिलेगी का निश्चय कर मैं आगे चल दिया।
रामलीला ग्राउंड के सामने से निकल रहा था की बस स्टैंड से एक युवक मुझे धक्का दे सामने से आ रही बस की तरफ लपका। मैं धक्का खाकर सम्भलते हुए बस स्टैंड पर ही बैठ गया। बराबर में कॉलेज से निकले दो युवक और एक युवती ठिठोली करते नज़र आये। एक फिल्म देखने की ज़िद कर रहा था जबकि दूसरा कनॉट प्लेस घूमना चाह रहा था। मुझे उनकी बातों में रस आने लगा। जब दोनों अपनी-अपनी जिद से नहीं टले तो फैसला युवती पर छोड़ दिया गया। युवती का फैसला सुन मैं भी मन ही मन मुस्कुरा उठा। युवती ने फैसला दिया कि पहले  तो ओडियन पर फिल्म देखी जाये और फिर कनॉट प्लेस घूम लिया जाये। शायद युवती दोनों ही चांसेस को छोड़ना नहीं चाह रही थी। फैसला दोनों को मान्य हो गया तो उन्होंने एक थ्री व्हीलर को रोका और उसमें  बैठ गए। मैं "ऊपर वाले " को ध्यान से देखने लगा और सोचा कि कहाँ तो दस रुपए को बचाने के लिए दस किलोमीटर पैदल और कहाँ पांच सौ खर्च करने के लिए... मौज-मस्ती के लिए.… कम !
घड़ी देखी तो तीन बज रहे थे। अगर ऐसे ही बैठा रहा तो "आज तक" के दफ्तर पहुँचते-पहुँचते छह बज जायेंगे। मुझे अपने परिवार का ध्यान आया तो उठ खड़ा हुआ। नौकरी की आस ने मेरे पैरों में पंख बाँध दिए थे।
अजमेरी गेट ! बड़ा ही गन्दा इलाका ! कहते हैं कि दिल्ली का "रेड लाइट" एरिया भी यहीं-कहीं है। "रेड लाइट" एरिया तो समझते हैं न! अरे, वही बदनाम बस्ती.... जिसमें सदियों से चला आ रहा और न जाने कितनी सदियों तक चलने वाला जिस्म फिरोशी का धंधा! छी:-छी:! सोचता हुआ आगे बढ़ गया।
पहाड़गंज पुल को पार किया ही था कि कुछ ठेला खींचने वाले तम्बाकू बनाने में मशगूल थे। महँगाई बढ़े या घटे, उन्हें तो रेहड़ा खींचना है। तम्बाकू मुँह में दबाये। जो कमाया, रात को रोटी पर प्याज़ रख कर खाया और लम्बी तान कर सो गए। उन बिचारों को क्या पता कि डिग्री क्या होती है, नौकरी पाने के लिए कैसे-कैसे पापड़ बेलने पड़ते हैं। लेकिन उन्हें देख कर अपने ऊपर भी ग्लानि होने लगी कि चाहे वो अनपढ़ ही सही, लेकिन अपना कमा-खा तो रहे हैं, मेहनत तो कर रहे हैं, किसी के आगे हाथ तो नहीं फैला रहे, भीख तो नहीं मांग रहे और एक मैं हूँ कि घर का सहारा बनने की बजाय घर वालों पर अभी तक बोझ बना बैठा हूँ।
तब तक पहाड़गंज का थाना आ गया था। गेट पर पान-सिगरेट बेचने वाले की मुद्रा को देख कर लगा कि शायद रात की रोटी के जुगाड़ की बात सोच रहा है या किसी क़र्ज़ को उतारने को लेकर सोच में है। बार-बार पैसों को देखने का अंदाज़ तो यही बता रहा था! तभी दो-चार पुलिस वाले थाने से निकले। एक पैकेट सिगरेट का लिया, दो-चार पैकेट गुटके के और चलते बने। पान वाले की मुद्रा बता रही थी की उसे उसके पैसे नहीं मिलेंगे। वाह ! क्या बात है!
आठ-दस कदम चलते ही सड़क के किनारे बनी झुग्गी-झोंपड़ी अपनी किस्मत पर रोती नज़र आईं। बदबू से भरा जीवन-यापन, लेकिन शायद वो भी इस बदबू के आदि हो गए थे, वरना जहाँ से जाते हुए मेरा जी मितला गया, वहां वे रहते हैं, सोचिए जरा.… !
चलते-चलते साइकिल मार्केट के कोने पर जा पहुंचा था। किनारे पर बने भैरों मंदिर से "आज तक" के कार्यालय की दूरी ज्यादा ना थी, पर पैरों के दर्द ने उसे बढ़ा दिया था। खैर, किसी तरह वहां पहुंचा। कार्यालय के बाहर खड़ी भीड़ ने हौंसला पस्त कर दिया था क्योंकि वे सब भी नौकरी की आस में वहां खड़े थे। कुछ बायोडाटा देने आये थे तो कुछ इंटरव्यू के नतीजे के इंतज़ार में !
इतनी देर में एक व्यक्ति अंदर से बाहर आया। उसने किसी का नाम पुकारा। इतने चेहरों के बीच एक  चेहरा खिला। कोई भी कह सकता था कि उस व्यक्ति ने इसी को पुकारा था। भाग कर वह उस व्यक्ति से मिला। उसने उसको एक लिफाफा दिया और बाकियों को जाने के लिए कह दिया। उत्सुकता जगी और खोजबीन की तो पता चला कि "आज तक" में आज फोटोग्राफरों का इंटरव्यू था और जिस व्यक्ति को आज नौकरी मिली थी, वह साल भर से यहाँ चक्कर काट रहा था।
जब मैं उस व्यक्ति से मिला तो उसने बताया की वह हर रोज़ यहाँ आकर बैठ जाता था और उसने कसम खा रखी थी कि यदि उसने नौकरी करनी है तो यहीं पर, वरना यहीं दरवाज़े पर बैठ कर अपनी जान दे देगा। आखिर फोटोग्राफी सीखने के लिए उसने अपने घर का सारा पैसा जो लगा दिया था!
दिल को ठेस लगी और लगा कि शायद मुझे भी ये कदम उठाना पड़ेगा और अगर किस्मत ने साथ दिया तो जल्द से जल्द, नहीं तो देर-सवेर नौकरी मिल ही जाएगी और अगर इतने पर भी नहीं मिली तो…
सर चकरा रहा था! फाइल गिरने को थी! यदि दीवार का सहारा न लिया होता तो… 

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