आज मानव के पिता जी को पहला हार्ट अटैक आया। शाम 7 बजे मानव पार्क में घूमने के लिए गया हुआ था। पिता जी अपनी चारपाई पर लेटे हुए थे। जबकि मानव की माँ शाम का खाना बनाने में लगी हुई थी। मानव का बड़ा भाई भी टूयशन पढ़ाने गया हुआ था, जबकि मानव की बड़ी बहन वहीं पिता की चारपाई के पास बैठी उनके सेवा में लगी हुई थी।
तभी बड़ी बहन की चीख सुन माँ के हाथ की रोटी हाथ में ही रह गई। मानव की माँ जब तक पिता की चारपाई के पास पहुँचती, बेटी के सफेद चेहरे को देख सकते में रह गई। उन्हें लगा जैसे वह वहीं खड़ी-खड़ी विधवा हो गई हो। हाथ की रोटी जमीन पर गिरी पड़ी थी, जबकि मानव के पिता पसीने-पसीने हो कमरे की खिड़की के पास लटक-से गए थे। बड़ी बहन पड़ोस में रह रहे जैन साहब को बुला लाई। जैन साहब के मँझोले बेटे ने फटाफट अपनी गाड़ी निकाली और मानव के पिता को उसमें बिठा अस्पताल ले उड़े।
उधर, मानव जब पार्क से घूमकर घर लौटा तो अवाक्-सा खड़ा रह गया। खाना बनाने के सारे बर्तन अस्त-व्यस्त से पड़े थे। पिता अपनी चारपाई पर नहीं थे और देखा तो सन्न-सा रह गया। उसके मुंह से अवाक्-सा निकल पड़ा: अब मैं बेसहारा हो गया। उसको अपने पिता की चारपाई खाली जो दिखाई देने लगी थी। उस लगा ये सब गलत भी तो हो सकता है। ऐसे में उसे सबसे पहले जो सहारा दिखा, वो पड़ोस के जैन साहब का परिवार ही था।
“बीबी जी, अम्मा और दीदी पापा को कहीं ले गए हैं क्या? कहीं दिखाई नहीं दे रहे?” मानव ने मिसेज जैन से पूछा।
“आओ बेटे, बैठो, तुम्हारी माँ और दीदी, कमल (मिसेज जैन का मँझोला बेटा) के साथ डाक्टर को दिखाने ले गई हैं। इतने वे आएँ, कुछ खा-पी लो।” बीबी जी ने जवाब दिया।
अब मानव को लग गया था कि उसे जो कुछ दिखाई दिया था, वह गलत नहीं था।
“कोई बात नहीं बीबी जी, जब वे आएँगी, तभी खा लूँगा।” मानव को लगा था कि शायद बीबी जी उससे कोई बात छिपा रही हैं।
“मालूम नहीं कितनी देर लगेगी, तू कुछ खा ले।” कहते हुए बीबी जी ने अपने नौकर बिल्लू को आवाज मारी।
“नहीं बीबी जी, उनके आने के बाद ही खाऊँगा।” कहते हुए मानव किसी आशंका को मन में लिए बीबी जी के कमरे से बाहर हो लिया। वह बरामदे में पड़े तख्त पर लेट गया और अपनी माँ और बहन का इंतजार करने लगा।
समय बीतता गया!
रात के ग्यारह बज गए, जब उसे बाहर किसी मोटरगाड़ी के रुकने की आवाज आई। उसे लगा कि उसकी माँ और बहन उसके पिता को लेकर आ रही होंगी और आते ही कहेंगी, “कुछ भी तो नहीं हुआ था इन्हें, बस ऐसे ही शोर मचा रखा था।” परन्तु वहाँ तो मानव को ऐसा कुछ नहीं लगा।
तभी मानव की बहन और जैन साहब के बेटे कमल ने घर में कदम रखा। कमल अपने घर की ओर चला गया।
मानव ने बड़े ही आराम से अपनी बहन से अपने पिता जी के बारे में पूछा तो मानव की बहन ने बड़ी ही चालाकी से बात को टालते हुए मानव से पूछा, “खाना खाया क्या?”
“दीदी, तुम्हें खाने की पड़ी है और मुझे अपने पापा की। दीदी, सच बताओ न, क्या हुआ है उन्हें, वे ठीक तो हैं न, डॉक्टर साहब कब तक उन्हें छुट्टी दे देंगे?”
“अच्छा चल, खाना खाते हुए तुम्हे तुम्हारी सारी बातों का जवाब दे दूंगी |"
"पहले मेरी बातों का जवाब दे दो, फिर मैं खाना जरूर खा लूंगा |"
“तो सुन, डॉक्टर साहब, कल सुबह सारे टेस्ट करेंगे, तब बतायेंगे कि हमारे पापा को हुआ क्या था?"
“सच, मेरी कसम, दीदी।”
“हाँ, बिलकुल सच। और चल अब खाना खा ले।” कहते हुए दीदी ने एक थाली में अपने और मानव के लिए खाना परोसा और दोनों भाई-बहन एक दूसरे को देखते हुए खाना खाने लगे। दोनों के मन में एक अंतर्द्वंद्व चल रहा था।
दीदी मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि उनके पापा को कुछ न हो और वह बार-बार उस चारपाई की ओर देख रहा था, जो अब उसे खाली दिख रही थी। लेकिन वह इसे अपने मन का वहम ही मान रहा था।
किसी ढंग से उसने चुपचाप अपने मन को मना ही लिया कि जो कुछ उसे दिख रहा है, वह गलत है।
लेकिन अगर उसे वह चारपाई खाली दिख रही है तो आखिरकार गलत कुछ तो हुआ ही होगा, जिस कारण उसे चारपाई खाली दिख रही है। उसने कुछ सोचा और अपने बिस्तर की तरफ हो लिया।
अगले दिन मानव ने जैन साहब के लड़के को पकड़ा और उनसे बड़े ही प्यार से पूछा कि उसके पापा को क्या हुआ था और उन्हें कहाँ ले गए हैं। थोड़ी देर के बाद ही मानव के कदम शहर के मशहूर अस्पताल की तरफ बढ़ रहे थे।
उसका मन बार-बार भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि उसके पापा को कहीं कुछ हो न जाए। मानव का मन बार-बार रोने को हो रहा था। कहीं पापा को कुछ हो गया तो उसका क्या होगा? उसे लगा कि जैसे उसके लिए तो दुनिया ही खाली हो गयी है | सारी दुनिया में केवल एक पापा ही तो हैं जो उसकी छोटी से छोटी बात का भी इतना ध्यान रखते हैं।
पैर अस्पताल की ओर बढ़े चले जा रहे थे। रास्ते में एक सिनेमाघर को देख उसकी आँखों के सामने एक घटना घूम आई | उसका स्कूल उसके घर से करीब डेढ़-दो किलोमीटर दूर था और मज़ेदार बात ये थी कि उसके स्कूल और घर के बीच शहर का मशहूर सिनेमाघर पड़ता था |
एक दिन उस सिनेमाघर में अपने जमाने के मशहूर कलाकार की एक फिल्म लगी। मानव अपने स्कूल से वापस घर लौट रहा था। उसे पता भी नहीं था कि उससे चंद कदमों के फासले पर कोई उसका पीछा कर रहा है।
मानव उस सिनेमाहाल में प्रवेश कर गया। उसके पीछे ही वे चंद कदम भी प्रवेश कर गए। सिनेमा हॉल की एक दीवार पर लगे शोकेस में फिल्म से संबंधित कुछ फोटो लगी हुई थीं। मानव उन फोटो को देखने में मशगूल था।
उसे पता नहीं था कि कोई दो आंखें उसके चेहरे पर आते-जाते भावों को बड़े ध्यान से देख रही थीं। मानव जब उन फोटो को देख सिनेमा हॉल से बाहर निकला तो किसी ने पीछे से उसे पुकारा, “अरे बेटे रुक जा, मैं भी साथ चल रहा हूं।”
मानव ने आवाज वाली दिशा की तरफ देखा तो उसका मुंह खुले का खुला रह गया। आवाज देने वाले और कोई नहीं, उसके पापा थे।
वह रुक गया! पापा उसके नजदीक आए और उससे बोले, “घर कहीं भागा तो नहीं जा रहा। आ, थोड़ी देर उस पार्क में, पेड़ के नीचे बैठते हैं।”
मानव चुपचाप नजर नीचे किए पापा के पीछे चल दिया। उसकी चोरी जो पकड़ी गई थी। मानव के पापा उसकी हालत को पतली देख मन ही मन मुस्कुरा रहे थे।
“क्या हुआ मानव” पापा ने पूछा था।
“कुछ नहीं” जवाब दिया था मानव ने। इतनी देर में दोनों पार्क में पेड़ के नीचे पहुंच चुके थे।
“एक बात पूछूं मानव,” पापा ने मानव का हाथ पकड़कर पेड़ के नीचे बैठते हुए कहा।
“हां-हां, क्यों नहीं,” मानव ने कहा।
“तुम सिनेमा हॉल में जब प्रवेश करते हो तो क्या देखते हो?” ये मानव के पापा की खासियत थी कि वह जब भी किसी से किसी भी विषय पर बात करते थे तो उसकी भूमिका इत्यादि न बनाकर सीधे स्पष्ट शब्दों में ही बात करते थे। उनकी इस खासियत से मानव भी भली-भांति परिचित था। अतः उसने भी सीधे-सपाट शब्दों में ही जवाब देना उचित समझा।
“चित्रों को चलते हुए देखता हूँ ।”
“नहीं, मेरा मतलब है उससे पहले पर्दे पर क्या देखते हो?”
“कुछ नहीं, बस सामने एक सफेद पर्दा होता है, जिस पर कुछ समय के बाद उस हॉल की लाइटें बंद कर सबको “उल्लू” बना दिया जाता है। यानी जैसे अँधेरे में “उल्लू” को दिखाई देता है, वैसे ही उस हॉल में अंधेरे में बैठे व्यक्ति को दिखाई देने लगता है, जो एक मशीन उन चित्रों को चलाती है और हम बड़ी खुशी से उल्लू बनकर ताली बजाते हुए प्रसन्न होते रहते हैं।
मानव को ये सब बातें बड़ी ही उबाऊ लग रही थीं।
“बेटे, मैं जानता हूं, मेरी यह सब बातें तुम्हें बड़ी ही “कोफ्त” पैदा कर रही हैं, लेकिन मैं जिस बात को कहना चाहता हूं, उसे अगर ध्यान से सुनोगे तो शायद तुम्हारी जिंदगी में वह कहीं तुम्हारे ही काम आएंगी। आज को तो ये बातें तुम्हें कोफ़्त पैदा कर रही हैं, परन्तु आगे आने वाले समय में जब तुम इन बातों को समझोगे तब तुम्हें पता चलेगा कि मेरी इन बातों का अर्थ क्या था।” कहते हुए पापा ने मानव के चेहरे की ओर फिर दुबारा देखा। उन्हें लगा कि शायद ये सही समय नहीं है, मानव को समझाने का। वे खड़े हुए और उन्होंने मानव को भी अपने साथ खड़ा कर लिया। उन्होंने मानव के कंधे पर अपना हाथ रख लिया और धीरे-धीरे घर की तरफ चल दिए।
घर पहुंचते-पहुंचते मानव के पापा बहुत-बुरी तरह से हांफ गए थे। सांस थी कि संभलने में ही नहीं आ रही थी। घर पहुंचते ही रजाई लेकर वे दुबक गए कि शायद सांस संभल जाए और उन्हें आराम आना चालू हो जाए। मानव की मां ने पापा के पैर दबाने चालू किए। मां के इशारे पर मानव कमरे से बाहर निकल गया था क्योंकि मां को पता था कि पापा मानव को देखते ही कुछ न कुछ समझाने लगेंगे और फिर उनकी सांस उखड़नी चालू हो जाएगी।
दरअसल मानव के पापा को अब अपनी जिंदगी से यकीन हट गया था और वे इस दुनिया को छोड़ने से पहले मानव को उसके पैरों पर खड़ा देखना चाहते थे। मानव भी इस बात को बखूबी समझता था, परन्तु चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा था। इन्हीं बातों की उधेड़बुन में उसके पैर घर के सामने बने पार्क के बेंच की ओर उठते चले गए | वहां पर भी डेढ़ -दो घंटों के सोच-विचार में भी उसे कुछ हासिल नहीं हुआ।
वह घर लौटा तो इतना थक चुका था कि उसे लगा वह मीलों चलकर आया है।
मानव के पापा सो चले थे, मां खिड़की के पास बनी “खुली” रसोईघर में खड़ी मेज पर रखे गैस चूल्हे पर खाना बना रही थी। मानव और मां की आंखें चार हुईं। दोनों ने एक-दूसरे की नजरों को जैसे पढ़ लिया था।
मां ने एक थाली उठाकर उस पर चार रोटी और सब्जी रख मानव को थाली पकड़ा दी थी। मानव ने थाली पकड़ ली थी। परन्तु उसके मन में तो एक और ही अन्तर्द्वंद्व चल रहा था।
क्या वह इस खाने पर कोई हक रखता है? क्या उसने आज कोई ऐसा काम किया है, जिसके बदले वह यह सोचे कि इस खाने पर उसका हक है? मानव खाना वापस रखने ही लगा था कि मां ने उसे रोक दिया। मां मानव के अन्तर्द्वंद्व को समझ रही थी, तभी उसने उसके सिर पर हाथ रखकर खाना रखने से मना कर दिया। मानव चुपचाप खाना खाने लगा।
इससे आगे की घटना लाख बार याद करने पर भी याद नहीं आ रही थी। उसे बस इतना ही याद है कि उसके पापा सिनेमा घर की जिस बात को लेकर उसे कुछ समझाना चाह रहे थे, वह शायद समझाने का मौका या तो मानव की बदनसीबी ने नहीं दिया या उसके पापा को जिंदगी में इतना समय ही नहीं मिल पाया कि वे उस बात को लेकर क्या कहना चाहते थे, ये समझा पाते।
उस सिनेमा हाल को देखते हुए मानव की आंखों में आंसू आ गए। पैर अस्पताल के भीतर पहुंच चुके थे। रिसेप्शन पर अपने पापा का नाम पूछकर वार्ड की ओर चल दिया। परन्तु पापा वार्ड में नहीं थे। मानव को एक झटका लगा। उसका मन डर के मारे घबराने लगा था। उसने बड़ी ही मुश्किल से अपने थूक को गटका और वार्ड में घुस गया। वहां बैठी नर्स से अपने पापा का नाम बताकर उनके बारे में पूछा। जब नर्स ने बताया कि उन्हें “आई सी यू” ले जाया गया है तो उसकी आंखों के सामने एक बार फिर “खाली चारपाई” घूम गई। अब उसके कदम “आई सी यू” की तरफ बढ़ रहे थे। मानव के दो बड़े भाई “आई सी यू” के बाहर खड़े थे।
मानव अपने बड़े भाइयों की तरफ बढ़ा। उधर से “आई सी यू” से निकलकर डॉक्टर साहब भी मानव के भाइयों की तरफ ही आ रहे थे।
मानव अपने भाइयों के पास रुक गया। मानव के बड़े भाई ने जब डॉक्टर साहब की आंखों में देखा तो डॉक्टर साहब का कहना था कि आने वाले तीन दिन यदि पापा ने निकाल दिए तो संकट किसी हद तक टाला जा सकता है। मानव को अब पूरा यकीन हो चला था कि “खाली चारपाई” का दिखना कोई मामूली घटना नहीं है |
मानव के भाई मानव से कोई ज्यादा बड़े तो थे नहीं, डॉक्टर साहब की बातों ने उन्हें भी जैसे सुन्न -सा कर दिया। मानव को अब अपनी दुनिया खाली नजर आने लगी थी। “कौन सँभालेगा मुझे” जैसे प्रश्नों ने मानव के दिमाग को हिलाकर रख दिया। मां के आँचल से मानव कभी का महरूम हो चुका था और भाई, उसे तो यह मालूम नहीं कब का पता चल चुका था कि अब परिवार को बोझ उसके कंधों पर आने वाला है, इसलिए वह बचपन में ही बुजुर्ग बन गया था।
लेकिन मेरा क्या होगा—जैसे प्रश्नों ने मानव को घेर रखा था। उसका मन कहीं भाग जाने को कर रहा था। उसे लगा कि यदि वह भाग भी गया और उधर पापा ठीक होकर अस्पताल से घर आ गए और घर में मुझे नहीं पाया तो कहीं ऐसा न हो कि उन्हें फिर दोबारा अस्पताल ले आया जाए और फिर कभी वे घर ही न लौटें। ऐसे में क्या वह खुद को माफ कर पाएगा और इसी विचार ने उसे घर से न भागने को मजबूर कर दिया।
समय बीता! पहला दिन गया।
शाम होते ही मानव के पापा ने इशारे से मानव के बड़े भाई को बुलाया। यूँ तो मानव के चाचा का बीच वाला बेटा भी उनके साथ ही खड़ा था, परन्तु मानव के पापा ने मानव के बड़े भाई को ही बुलाया। थोड़ा नजदीक बुलाकर उसके कान में कुछ कहा!
बड़े भाई ने मानव और चचेरे भाई को कुछ देर रुकने को कहा और स्वयं बड़े-बड़े डग भरकर अस्पताल से बाहर चल दिए। थोड़ी देर बाद वह घर पर अपनी मां के सामने खड़े थे। “पापा ने कल यह जो हमारे पड़ोसी जैन साहब हैं न, उन्हें बुलाया है,” कहते हुए मानव के बड़े भाई ने अपनी मां की ओर देखा।
मां के चेहरे पर एक तरफ भाव आ रहे तो दूसरी तरफ जा रहे थे। उन्हें पता ही नहीं चल पा रहा था कि उन्होंने “जैन साहब” को क्यों बुलाया है। मन में अच्छे और बुरे विचारों का आना-जाना जारी था।
बड़े भारी मन से वे उठी और पड़ोस में रहने वाले जैन साहब के घर चली गई। वहां “मिसेज जैन” उन्हें मिली। मिसेज जैन को सब लोग “बी जी” कहते थे।
बी जी को सारी घटना का पता था, अतः मानव की मां को देख वह भी किसी आशंका से काँप उठी | परन्तु जब मानव की मां ने उनसे कहा कि मानव के पापा ने जैन साहब को अस्पताल बुलाया है तो उनकी जान में जान आई। मानव की मां को कल जैन साहब को भेजने का आश्वासन दे मानव की मां को उसके घर भेज दिया।
दिन ढला रात आई। राम-राम करके रात भी गुजर गई।
अगले दिन सुबह ही सुबह मानव की मां फिर जैन साहब के घर पहुँच गई। कमरे में सामने बी जी बैठी थी। सारी रात की थकान से ग्रस्त मानव की मां को सामने देख बी जी का मन किसी आशंका से कांप उठा। बी जी ने मानव की मां के चेहरे को देखते हुए पूछा कि क्या हुआ जो वह इतनी थकी-सी दिख रही है।
कुछ नहीं कहते हुए मानव की मां ने केवल इतना पूछा कि जैन साहब मानव के पापा से मिलने के लिए चले गए हैं या अभी जाएँगे?
क्यों?
मानव की मां सोच रही थी कि अगर जैन साहब नहीं गए हैं तो वह भी उनके साथ चली जाती। आखिर औरत का मन है, कहीं न कहीं यह सोच रहा था कि आखिर ऐसी क्या बात है, जो उन्होंने जैन साहब को बुलाया है, जिनसे आज तक कभी कोई बात नहीं हुई, उनसे ऐसा क्या काम पड़ गया जो उन्होंने जैन साहब को अस्पताल ही बुला लिया।
बी जी ने मानव की मां को बताया कि जैन साहब अभी थोड़ी देर पहले ही यह कहकर निकले हैं कि आज उन्हें आफिस में भी कोई मीटिंग अटैंड करनी है, अतः वे जल्दी ही अस्पताल में मानव के पापा से मुलाकात कर आफिस के लिए निकल जाएँगे।
अब मानव की मां जल्द से जल्द वहां से निकलना चाहती थी। मानव की मां को लग रहा था कि उसके जल्द से पंख निकल आएँ और वह जैन साहब के अस्पताल पहुँचने से पहले ही पहुँच जाए। आखिर देखे तो सही किसलिए मानव के पापा ने जैन साहब को बुलाया है।
और... आखिरकार बी जी से मानव की मां ने इजाजत ले ही ली।
मानव की मां के पैरों में पहिए लग गए थे। वह जल्द से जल्द मानव के पापा के पास अस्पताल पहुंच जाना चाहती थी। घर में एक ही व्यक्ति तो था कमाने वाला, उसकी भी आमदनी इतनी न थी कि अस्पताल की दवाइयां, फल इत्यादि लिए जाते कि घर के दूसरे खर्चों में पैसा लगाया जाता।
मानव की मां जिस समय अस्पताल के गेट पर पहुंची, जैन साहब अस्पताल से बाहर निकल रहे थे। जैन साहब को देखते ही मानव की मां ने हाथ जोड़कर जैन साहब का अभिवादन किया, जिसका जैन साहब ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया और अस्पताल से बाहर हो गए।
समय बीत गया! दूसरे दिन की शाम आ गई थी।
मानव मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि कल तीसरा दिन है, किसी ढंग से वह तीसरा दिन और निकल जाए।
परन्तु क्या निकल पाएगा? शायद नहीं और शायद हां भी!
जैसे-जैसे रात गहराती जा रही थी और तीसरे दिन का इंतजार हो रहा था, वैैसे-वैसे सभी के धड़कनें तेज होती जा रही थी। तभी मानव के पापा ने मानव के भाई को इशारा करके अपने पास बुलाया और उल्टी-सीधी बातें करने लगे, मसलन जब मैं कल सुबह सुदूर यात्रा पर निकल जाऊंगा तो मेरे शव को मंत्रोच्चार के साथ अग्नि के सुपुर्द करना। सुबह आठ बजे मेरे ईश्वर मुझे लेने आ जाएंगे आदि-आदि।
ऐसी बातें मानव के भाई ने पहले कभी नहीं सुनी थी और अब ऐसी बातों ने उसके दिमाग में हलचल मचा दी थी। हलचल मची और कोई रास्ता नहीं दिखा तो भागकर अपने घर पहुंच गया। मां को सारी बातें बता उन्हें अपने साथ चलने के लिए मनाने लगा। मां ने मानव के बड़े भाई को खाना खाकर आने को कह बड़े भाई को वापस अस्पताल जाने के लिए कह दिया। रात्रि के दो-ढाई बज रहे थे। जब मानव की मां ने खाना खाया।
मानव के घर से अस्पताल जाते समय रास्ते में भोलेनाथ का एक बहुत ही प्राचीन मंदिर पड़ता था। उस मंदिर में एक विशाल कल्पवृक्ष (पीपल) भी था। डूबती नैया को भगवान का ही एकमात्र सहारा दिखता है, ठीक वैसा ही हाल मानव के परिवार का भी हो रहा था।
मानव की मां जब उस मंदिर तक पहुंची ही थी और मंदिर के दरवाजे पर सही-सलामती के लिए सिर रखा ही था कि उस कल्पवृक्ष से एक कौए की कायं-कायं की आवाज आई और मानव की मां को लगा कि उनके माथे की बिंदी किसी ने पोंछ दी है।
मानव की मां के शरीर से खून जैसे किसी ने निचोड़ लिया था। उसकी रंगीन धोती जैसे सफेद धोती में बदल गई थी। वह तुरंत खड़ी हुई और अस्पताल की तरफ ऐसे भागी जैसे उनके पैरों में पहिए लग गए हों। वार्ड की खिड़की के पास पहुँच मानव की मां ने खिड़की से मानव के पिता की चारपाई की तरफ देखा। क्या कह रहे थे, ये मानव की मां को पता न लगा क्योंकि उस समय तो उनके दिमाग में कुछ और ही चल रहा था।
क्या चल रहा था मानव की मां के मन मे ...
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