सुबह के आठ बजे थे। तीस जनवरी का दिन था। महात्मा गांधी की समाधि पर मंत्रोच्चार के साथ हवन कुंड में आहुतियाँ दी जा रही थीं और उधर किसी की दुनिया किसी के जाने से खाली होती जा रही थी।
तभी जैन साहब के घर में फोन की घंटी बजी। मानव की बड़ी बहन को जैन साहब की पत्नी “बी जी” ने बुलाया और सारी बात बताई। बड़ी बहन ने मानव को केवल इतना ही कहा कि यदि वह अपने पापा से मिलना चाहता है तो तुरंत अस्पताल पहुँच जाए, परन्तु मानव के मुँह से निकला, अब वहाँ जाकर भी क्या मिलेगा। ये तो मुझे उस दिन ही पता चल गया था, जब आप सब पापा को लेकर अस्पताल गए थे। मुझे तो उसी दिन पापा की चारपाई खाली दिख गई थी। लेकिन फिर भी अस्पताल तो हो ही आता हूँ, शायद पापा मिल ही जाएँ।
मानव जिस समय अस्पताल के उस वार्ड में पहुँचा, मानव की माँ की आवाज उसे सुनाई दी, डॉक्टर साहब, खेल तो खत्म हो चुका, अब क्या फायदा? मानव वार्ड के अंदर दाखिल न हो सका। वह वापस हो चला!
घर पर श्मशान घाट से संबंधित सब सामान आ चुका था। रोना-धोना मचा हुआ था। सब एक दूसरे को समझा रहे थे। तभी एक आवाज ने मानव को चौंका दिया। वह आवाज एक पड़ोसन की थी जो कह रही थी कि अरे अब आखिरी बार मानव को भी तो उसके पापा का चेहरा दिखा दो। वह भी तो अपने पापा को आखिरी बार देख ले। लेकिन मानव अपने पापा को आखिरी बार देखने की हिम्मत न जुटा पाया। देखता भी तो क्यों? अपने पापा को आखिरी बार देखना गँवारा न समझा और घर के बाहर जाकर खड़ा हो गया, ये सोचकर कि क्यों आखिरी बार देख ले। पापा उसके हैं, उसके थे और उसके ही आखिरी सांस तक रहेंगे। वह अपने पापा से कभी जुदा न हो पाएगा, आखिरी सांस तक भी नहीं। वह भागकर सामने वाले पार्क में छुप गया कि कहीं ऐसे उसके पापा को आखिरी बार न देखना पड़े। अंतिम यात्रा की तमाम तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं, जब उसे ढूंढकर लाया गया। अब उसकी समझ में आ रहा था कि तेरा अपना खून ही आखिर, तुझको आग लगाएगा। उसके कंधे पर उसके पापा की अर्थी थी, जब वह महज चौदह साल का था और उसका भाई अठारह साल का।
उसने मन ही मन जिंदगी से टक्कर लेने की ठान ली थी। आँखों के आँसू मन को कमजोर बना देते हैं, इसीलिए वह अपने पापा के इस दुनिया से जाने पर भी नहीं रोया, कोई आँखों में आँसू नहीं, बस मन में एक निश्चय था। लेकिन क्या निश्चय से ये दुनिया चल जाती है? उधर मानव का निश्चय और उधर किस्मत की लेखनी। दोनों में युद्ध होना तो लाजमी है, लेकिन अंत आखिर किस्मत की ही होती है, जिसे कोई नहीं मिटा सकता।
समय ने अपनी रफ्तार पकड़ी। आज मरे, कल दूसरा दिन वाली कहावत चरितार्थ होने लगी। सभी रिश्तेदार धीरे-धीरे अपने-अपने घरों की तरफ़ लौटने लगे। रह गए तो केवल चाचा-ताऊ, जिन्होंने अभी और भी काम करवाना था।
मानव को तो उसके पापा का मरना, एक सामान्य-सी घटना लग रही थी। उसे ये पता नहीं था कि जब भी किसी घर से, और जब कि वह घर तुम्हारा हो, उसका एकमात्र कमाने वाला सहारा चला जाए तो उस घर पर कैसी विपत्ति आती है और शायद इसीलिए जब घर के सभी लोग आगे के कामों पर सोच-विचार करते थे, मानव घर के रेडियो को चालू कर अपने गाने सुनने में मशगूल हो जाता था। जब कोई घर का सदस्य उससे कुछ कहता तो वह एक ही जवाब देता था कि मेरे पापा चले गए, कल को हम सबने ही चले जाना है। कब कौन जाएगा, ये न मैं जानता हूँ और न तुम। चलो, छोड़ो।” और उसे उसके घर वाले पागल समझते और आगे बहस न करते। तभी तो वह उच्छृंखल हो चला था। धीरे-धीरे उसकी इन आदतों के कारण घर वालों ने उसकी तरफ ध्यान देना बिल्कुल बंद कर दिया और घर में अब रह भी कौन गया था, माँ और मानव का बड़ा भाई! बड़ा भाई, जिसने घर की नौकरी की पतवार थाम ली थी और मानव, उसकी नौका अब डगमगाने लगी थी।
मानव के घर के सामने पार्क था। शाम होते ही वहां ऐसे-वैसे लड़कों का जमावड़ा शुरू हो जाता था। सब अपनी-अपनी हांकने में लगे रहते थे। मानव भी बड़ी-बड़ी बातें उनके बीच में कभी-कभार कह दिया करता था। उसकी बातों को सुन सब उस समय तो हाँ में हाँ मिला देते थे, परन्तु पीठ पीछे सबकी तरह उसकी हंसी उड़ाई जाती थी। धीरे-धीरे बुराइयों में मानव की प्रसिद्धि होने लगी थी।
उसकी बदनामी उसकी माँ तक भी पहुँची। माँ की समझ में न आया कि मानव को उस बदनामी से कैसे बचाया जाए। इसके लिए मानव की माँ ने अपने बड़े बेटे और दामाद से बात की और वे तीनों एक फैसले पर पहुँच गए | परन्तु ये फैसला गलत था या सही, ये उन तीनों में से कोई नहीं जानता था।
मानव के शहर के पास ही एक नई कच्ची कॉलोनी का विकास हो रहा था। तीनों जाकर वहाँ एक दुकान का सौदा कर आए और मानव को अपने पास बिठाकर समझाने लगे, “देखो बेटे, तुम्हारी जिंदगी के प्रति भी हमारी कुछ जिम्मेदारी बनती है। हम लोग चाहते हैं कि हमने शहर के पास तुम्हारे लिए एक दुकान ले दी है, जहाँ तुम्हारी स्टेशनरी की दुकान बहुत अच्छी चल निकलेगी। कहो, करोगे न।” कहते हुए तीनों ने मानव के चेहरे की तरफ देखा।
“जैसी तुम्हारी मर्जी” कहते हुए मानव वहाँ से बाहर निकल गया।
दरअसल अब वह इतना जबरदस्त आवारागर्द हो गया था कि उसे अपनी यह दुकान अब अपनी आजादी पर अंकुश नजर आ रही थी। उसने दुकान के लिए हाँ तो कर ली थी, परन्तु अब उसे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था कि वह अपनी आवारागर्दी को चालू कैसे रखे?
कुछ समय के बाद मानव के बड़े भाई और जीजाजी ने जैसे-तैसे पैसों का जुगाड़ कर दुकान में सामान भी डलवा दिया। परन्तु अब दुकान मानव के घरवालों के लिए सिरदर्द साबित हुई तो वहीं मानव के लिए स्वर्ग साबित हुई। दरअसल अब वहाँ उसे टोकने वाला कोई न था। जब भी चाहता दुकान बंद कर देता। शाम हो या दोपहर, आवारागर्दों का जमावड़ा वहाँ लगने लगा था। दुकान के ठीक सामने लड़कियों का स्कूल भी था।
धीरे-धीरे दुकान की प्रसिद्धि मानव के घर तक भी जा पहुँची। लिहाजा घर वालों का एक बार फिर निर्णय हुआ कि दुकान बंद कर दी जाए। सब उसको समझाने के लिए एकजुट तो हो गए, लेकिन किस्मत में तो कुछ और ही लिखा था।
दुकान बंद हो जाने से मानव फिर एक बार सड़क पर आ गया। फिर वही पुराने दोस्त, जो दोस्त कम दुश्मन ज्यादा थे, आ मिले और यहीं से फिर एक बार शुरू हुआ खेल किस्मत का।
घर वाले और पास-पड़ोसी चाहते थे कि मानव पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी पा ले और दोस्त चाहते थे कि वह भी उनकी तरह ही आवारा और लफंडर बन जाए।
एक दिन मानव अपने दोस्तों के बीच बैठा था। तभी उन्हीं दोस्तों ने आपस में आँखों ही आँखों में इशारा किया और मानव के सामने भूमिका बनानी शुरू कर दी।
अपने-अपने प्रियजनों की मौतों के बारे में सब बताने लगे, लेकिन लगे हाथ यह भी कह देते थे कि मरने वाले के साथ मरा भी तो नहीं जाता, मरने वाला तो चला गया लेकिन हम अपनी खुशियों को तो लात नहीं मार सकते, कहते-कहते मानव को कहने लगे कि शहर के मशहूर सिनेमा हॉल में एक बहुत ही बड़े डायरेक्टर-प्रोड्यूसर की फिल्म लगी है, चलो देखने चलते हैं। थोड़ा मन भी बहल जाएगा। पाँच रुपए ही तो लगने हैं। (उन दिनों सवा रुपए की सिनेमा हाल की टिकट आया करती थी)। चल आज तो हम खर्च कर देते हैं। बाद में हमें लौटा देना।
मानव घर पर इस बात की जानकारी देने चला गया कि वह रात को देर से घर लौटेगा। मानव की माँ समझ तो चुकी थी, परन्तु मानव को रोकने का मतलब था घर के माहौल को बदलना। मानव का बड़ा भाई तो पहले ही रात्रि शिफ्ट के लिए जा चुका था, इसलिए मानव के मन का डर अब धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा था।
फिल्म देख रात एक बजे मानव घर लौटा था। सारे रास्ते दोस्तों की हंसी में शामिल न होकर मन ही मन जैसे कोई निश्चय कर रहा था। घर लौटकर मानव ने अपनी माँ को आवाज लगाई। घर का मुख्य द्वार खोलने उसका बड़ा भाई आया था। घर के वातावरण को देख दोनों भाई अपने-अपने चारपाइयों की तरफ बढ़ चले।
रात को देर से सोने के कारण सुबह दोनों की नींद देर से खुली। दोनों एक-दूसरे से नजरें चुरा रहे थे। मानव की माँ भी वातावरण को बखूबी समझ रही थी। देर से जगने के कारण मानव स्कूल भी नहीं जा पाया था और रात को नींद देर से आने का कारण भी उसकी समझ में आ रहा था। इसीलिए उसने अपनी माँ से पांच रुपए माँग लिए। जवाब मानव के बड़े भाई की तरफ से आया “एक बार जरा पाँच रुपए कमाकर तो दिखा, फिर मांगने का भी हक रख लेना।”
ऐसा कहने का अर्थ मानव के बड़े भाई का यह कदापि नहीं था कि वह छोटे भाई का दिल दुखाना चाहता था, बल्कि उसके ये कहने का अर्थ केवल इतना था कि वह पैसे के मूल्य को समझे। यह शायद मानव को घर की तरफ मोड़ने का पहली पहल थी और शायद मानव को उन दोस्तों से पिंड छुड़ाने की पहली पहल, जो उसके दोस्तों से ज्यादा दुश्मन थे।
मानव ने बड़े भाई की बात सुनकर मन ही मन ठान लिया था कि वह सुनेगा सबकी, परन्तु करेगा अपने मन की और यही बात उसे सारी जिंदगी बर्बाद ही करती रही थी क्योंकि किसी भी बात का परिणाम जाने बिना ही वह किसी भी काम को कर बैठता और जब उसका परिणाम उसके सामने आता तो हाथ मलने के अलावा और कोई चारा उसके सामने नहीं रह पाता। अपने और अपने उन दुश्मन दोस्तों से अलग सारी दुनिया ही उसकी दुश्मन और बेवकूफ थी, जो उसे आगे बढ़ने से रोकती रहती थी। कहते हैं कि बुरी बातें सीखने में आदमी को ज्यादा समय नहीं लगता जबकि कुछ अच्छा सीखते-सीखते आदमी की पूरी जिंदगी गुजर जाती है और जबकि मानव कुछ अच्छा सीखना ही नहीं चाहता था, ऐसे में उसकी जिंदगी में एक और आदमी ने प्रवेश किया। यह आदमी था, मानव की मौसी का भाई। अब जब कि मानव की धर्मबहन का भाई हुआ तो वह मानव की माँ का भाई भी तो हुआ यानी मानव का मामा।
यह मानव का मामा लगभग उसी की ही उम्र का था। पहले-पहले तो मामा-भांजा, फिर ये रिश्ता उम्र के लिहाज से कब दोस्ती में बदल गया, पता ही नहीं चला। दरअसल इन मामा की भी वही हालत थी, जो मानव की थी, परन्तु दोनों की परिस्थितियाँ अलग-अलग थी। इन मामा के घर पर सब चीजों की बहार थी, परन्तु अब धीरे-धीरे मानव के घर में पापा के रहते तक तो सब चीजों की बहार थी, परन्तु अब धीरे-धीरे घर का सब संतोष जैसे खत्म होता जा रहा था और होता भी क्यों नहीं, मानव के कदम गलत रास्तों पर जो चल पड़े थे।
मामा को समय काटने के लिए “कोई” चाहिए था और उधर मानव को भी आवारागर्दी के लिए “कोई” चाहिए था। इसलिए दोनों की चल निकली। धीरे-धीरे सब रिश्तेदारों ने अपना सामान समेट लिया था। आखिर कब तक वे भी मानव की सँभालने में लगे रहते। उनकी भी तो अपनी जिंदगी थी, अपना घर था। इतना होते हुए भी सबकी “नजरें” मानव पर ही लगी हुई थीं।
मानव और उसके परिवार पर सारी दुनिया की नजरें लगी हुई थीं। सब आपस में मानव की “बर्बादी” के लिए फुसफुसाते रहते थे, सारी दुनिया बस एक ही बात कहती थी कि देखो बाप के मरते ही मानव कैसा बर्बाद हो गया है। लगता है अब इसकी जिंदगी कुछ सालों के बाद सलाखों के पीछे ही बीतेगी।
मानव के कार्य-कलाप ही ऐसे थे कि लगता था कि अब जो दुनिया कह रही है, वह सही ही साबित होगी। लेकिन इस दुनिया में एक ऐसा व्यक्ति भी था, जो सब कुछ अपनी आँखों से देख रहा था। सब कुछ समझ रहा था। लेकिन वक्त का इंतजार कर रहा था।
मानव की बदमाशियों की लिस्ट बढ़ती जा रही थी। मामा की सोहबत ने नए नए शौक जो लगा दिए थे। सारी-सारी रात घर से बाहर, बीड़ियाँ फूँकते हुए, दोनों सड़कों पर भटकते रहते थे।
बुजुर्गों की कहावत है बुरे के दिन भी तेरह साल में एक बार बदलते ही हैं। ये बात बिल्कुल हकीकत है कि प्रत्येक मानव के जीवन में उसकी किस्मत में तीन बार बदलाव आते हैं, बेशक वह उन बदलावों को पहचान नहीं पाता है और सारी जिंदगी अपने को कोसता रह जाता है। मानव की जिंदगी में पहला बदलाव आने ही वाला था, तभी तो परिस्थितियाँ उसके पक्ष में होती जा रही थीं। रातों को घूमने की आदत शायद इसीलिए तो लगी थी।
इससे पहले कि मानव की जिंदगी में गलतियों की भरमार होकर उसकी जिंदगी को तबाह कर पाती, मानव के इस मामा को अचानक ही किसी बहुत जरूरी काम से गांव जाना पड़ गया। मानव फिर अकेला पड़ गया। मामा के गांव जाने के दो दिन बाद ही मानव का मन फिर घर से उखड़ने लगा | तीसरे दिन...वह रात का खाना खाकर फिर बाहर निकल आया।रात के ग्यारह बज रहे थे। कुछ दुकानें खुली थी और कुछ बंद हो रही थी। बीड़ी की तलब ने उसे पैंट की जेब की तलाशी लेने को मजबूर कर दिया।
देखा तो एक रुपया मिल गया। वह तुरंत दुकान की तरफ गया और एक रुपए वाला बीड़ी का बंडल ले मन में संतोष की सांस ली।
उसका रात को घर जाने का कोई इरादा नहीं था। बीड़ी का बंडल बीड़ी निकाल ली। जेब में माचिस नहीं थी। देखा दुकान बंद हो चुकी थी। खुली भी होती तो क्या होता? पैसे तो जेब में थे नहीं। सड़क पर भी लोग कम जा रहे थे और उसकी इतनी हिम्मत नहीं थी कि किसी को रोककर पूछ सके कि माचिस है क्या? इसी उधेड़बुन में वह अपने इलाके की सब्ज़ी मंडी तक पहुँच गया था। वही रूटीन, वही भागते लोग, वही पीठ पर सब्जियों की बोरी ढोते मजदूर और इन्हीं मजदूरों में एक उसी की उम्र का सब्ज़ी मंडी के ठीक सामने बने बस स्टॉप के पास बने बिजली के खंभे के नीचे बैठा सारी दुनिया से बेखबर अपनी किताबों में डूबा हुआ था।
“क्यों दुनिया को बेवकूफ बना रहे हो? ये दिखाकर कि कितने पढ़ाकू हो ?"
“.........”
“मैं तुमसे ही कह रहा हूँ। अगर इतने पढ़ाकू हो तो घर में बैठकर क्यों नहीं पढ़ते? क्योंकि वहां तुम्हें देखने वाला कोई नहीं होगा और यहां दुनिया तुम्हें देखकर तुम्हें शाबाशी देगी | अरे कोई नहीं है शाबाशी देने वाला | माचिस तो होगी तुम्हारे पास, ये लो तुम भी बीड़ी पियो।” कहते हुए मानव ने बीड़ी का बंडल उसकी तरफ उछाल दिया।
“मैं बीड़ी नहीं पीता और हां, रहा सवाल मेरे घर पर पढ़ने का, कि वहां कोई नहीं देखेगा तो उसका जवाब है कि मैं किसी को दिखाने के लिए नहीं पढ़ता | मेरे को किसी की शाबाशी से कुछ नहीं लेना देना। मैं तो अपने समय का सदुपयोग करता हूँ और रही घर की बात, तो यहां से बारह-पन्द्रह किलोमीटर दूर मेरा घर है | अगर मैं घर गया तो घर के खाने-खर्च के लिए जो कुछ मुझे यहाँ मिलता है, वह कहां से मिलेगा। मैं इस समय दसवीं कक्षा की तैयारी कर रहा हूं। अगर फेल हो गया तो मेरा सारा घर तबाह हो जाएगा। मेरे परिवार के लोग मुझ पर लांछन भेजेंगे। घर में अकेला कमाने वाला हूं। अगर कमाई अपनी पढ़ाई पर खर्च कर दूंगा तो घर का खर्च कैसे चलेगा? ये जो बीड़ी का बंडल एक रुपये में लाए हो न। मैं यहां से एक बोरी अपनी पीठ पर उठाकर अंदर मंडी में दुकान तक छोड़कर आऊंगा तो मुझे एक रुपया मिल जाएगा। अब तुम्हीं बताओ मेरे दोस्त। तुम एक रुपया गंवाकर जाओगे और मैं एक रुपया कमाकर जाऊंगा। मैं रोज दस रुपये कमाकर घर ले जाता हूं। तब कहीं जाकर अपनी मां और छोटे भाई का खर्च उठा पाता हूं। अब तुम बताओ, जब तक ट्रक नहीं आता, अगर मैं इस लाइट के नीचे बैठकर अपना समय का सदुपयोग कर लेता हूं तो क्या बुरा करता हूं।
मानव के शरीर में ऊपर से नीचे तक झनझनाहट फैल गई। उसी की जितनी कक्षा में पढ़ने वाला आज अपने और अपने परिवार को लेकर कितना गंभीर है और वह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है। उसकी जिन्दगी कहां से कहां पहुंच जाएगी... वह अपनी गंदी आदतों और दुश्मन दोस्तों के साथ रहकर बदनामी के साथ-साथ जेल की सलाखों के पीछे पहुंच जाएगा। जेल की कल्पना ने उसके हाथ-पैरों को ढीला कर दिया था और वह कुछ सोच वापिस घर की ओर लौट पड़ा।
समय देखा! तीन बजने को हो आए थे। ट्रक आ चुका था। देखा, लड़के ने अपनी पुस्तक ड्राइवर के हाथों सौंप दी थी, जिसे ड्राइवर ने अपनी सीट पर रख दी थी और वह लड़का उस ट्रक के पीछे चला गया था, जिसमें सब्जियां लदी थी। मानव ने देखा एक बोरी उसने अपनी पीठ पर लादी और सड़क पार करने की तैयारी करने लगा।
मानव को उसकी मेहनत देख अपने ऊपर घिन आने लगी। मानव ने मन ही मन एक निर्णय लिया और घर की तरफ मुड़ लिया। लेकिन अभी तो रात के तीन बजे हैं। घर का दरवाजा भी बंद होगा और अगर उसने दरवाजा खुलवाना चाहा तो उसकी मां की नींद खुल जाएगी। वह वहीं बस स्टैंड पर बैठ उस लड़के की मेहनत को देखने लगा। मानव ने मन ही मन सोच लिया था कि जैसे भी हो वह भी मेहनत कर के पैसा कमाएगा और घर चलाने में अपनी मां की सहायता करेगा।
दो-तीन घंटे बाद वह फिर उस लड़के से मिला और उसको अपने निर्णय के बारे में बताया। उस लड़के ने मानव की खिल्ली उड़ाते हुए जवाब दिया कि जो एक रुपये को बीड़ी के धुंएं में उड़ा देते हैं वह भला एक रुपये के लिए सब्जी से भरी बोरी कैसे उठा पाएगा।
इतनी ही देर में उस लड़के की बस आ गई और वह उसमें बैठकर जाते-जाते मानव के चेहरे पर एक प्रश्नचिन्ह जरूर छोड़ गया। मानव भारी कदमों से घर की तरफ चल दिया।
उसने मन ही मन कोई निर्णय कर लिया था। इसलिए घर जाते ही उसने नहाने की बाल्टी उठाई और सड़क पर चला गया।
सबसे पहले उसने जो निर्णय लिया था, उसके अंजाम की यह पहली कड़ी थी | स्कूल के कपड़े पहन उसने सबसे पहले अपनी मां के पैर छुए और आशीर्वाद लिया। मां अवाक-सी मानव को देख रही थी।
आखिर एक ही रात में क्या हो गया था मानव को!
मानव की मां को एक दिन की याद हो आई।
उस दिन बड़ा बेटा भी किसी काम के सिलसिले में जल्द ही निकला था और मानव सुबह-सुबह ही मालूम नहीं कहीं चला गया था। मानव की मां घर के बाहर वाले आंगन में धूप सेंकने चली आई थी। थोड़ी ही देर में दो साधु वहां आए! मानव की मां ने उन्हें देखते ही प्रणाम किया!
बदले में उन साधुओं ने मानव की मां को आशीर्वाद दिया। उन साधुओं में से एक साधु ने मानव की मां से उनके बच्चों के बारे में पूछा। जब उन साधुओं ने मानव की मां को कहा कि उनके दो बेटे व एक बेटी हैं और एक दूसरी बेटी बचपन में उनको छोड़कर चली गई तो मानव की मां का मुंह खुले का खुला रह गया और तब तो और भी आश्चर्य हुआ जब उन साधुओं ने अपनी बंद हथेली को थोड़ा सा खोलकर दिखाया तो उन साधुओं की हथेली में पूरा का पूरा "प्रभु श्री राम का दरबार" था।
तब उन साधुओं ने कहा था कि उनका बड़ा बेटा तो किसी उच्च पद पर पहुंचेगा, लेकिन छोटा बेटा या तो वैरागी हो जाएगा अथवा एक बहुत बड़ा लेखक बनेगा और एक ऐसी किताब लिखने के लिए उसका जन्म हुआ है जो तुम्हारे परिवार को संसार में प्रसिद्ध दिलवाएगी।
आज मानव की मां को उस तांत्रिक के वे शब्द भी याद आने लगे थे।
एक बहुत पवित्र आत्मा है जो किसी खास मकसद के लिए इस दुनिया में आई है।
क्या है वो खास मकसद...
पढ़िए अगले अंक में...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें