इस बात का पता मानव को नहीं था।
जब तक मानव की माँ अपने इन ख्वाबों से निकलती, मानव पीठ पर बस्ता लादकर माँ की आँखों से बहुत दूर जा चुका था। मानव की माँ की आँखों में आँसू थे, शायद मानव के घर वापस लौट आने की खुशी में।
एक कहावत है कि अच्छे से बुरा बनने में समय नहीं लगता, परन्तु बुरे से अच्छा बनने में पूरी जिंदगी बीत जाती है। मानव भी अब बुरे से अच्छा बनने की कोशिश में लग गया था। परन्तु क्या ये समाज उसे अच्छा बनने देगा?
लेकिन मानव ने तो अच्छा बनने की ठान ली थी, तभी तो जब वह स्कूल से लौटा तो चुपचाप खाना खाकर नौकरी की तलाश में निकल गया।
लेकिन क्या करेगा वह? कोई अनुभव भी तो नहीं है उसके पास। क्या करे, कहाँ जाए, किससे पूछे।
सामने पान-बीड़ी वाले की दुकान थी। जेब में एक रुपया! मन में एक निश्चय।
बुरा मन कह रहा था कि एक रुपए की तो बात है, चल ले ले और अच्छा मन उसे बार-बार रात वाले लड़के की याद दिला रहा था, जो इसी एक रुपए के लिए कितना भारी बोझ अपनी पीठ पर लादकर इधर से उधर ले जा रहा था।
मन में निश्चय, चाहे कुछ भी हो जाए, वह इस एक रुपए को खर्च नहीं करेगा।
इस तरह के निश्चय ही तो बुरे को अच्छा बनाते हैं। जब शाम तक कोई काम नहीं मिला तो मानव कुछ सोचते हुए घर लौट आया। अब वह अपने “होमवर्क” को पूरा करने में जुट गया था जो आज स्कूल से मिला था।
होमवर्क करते हुए ही उसकी माँ ने उसका खाना वहीं पकड़ा दिया था। खाना खाकर मानव बाहर निकल गया था।
वही बस स्टैंड, वही लड़का, अपनी पुस्तकों के साथ जूझता हुआ। लड़के ने मानव की हंसी उड़ाते हुए पूछा कि आज उसके हाथ की बीड़ी कहाँ गई?
मानव की हाथ की मुट्ठियाँ तन गईं, लेकिन मन के किसी कोने से आवाज आई कि तुझे तो अच्छा बनना है न, चल इसे माफ कर दे।
मानव ने उसे बताया कि वह उसी की तरह अच्छा इंसान बनना चाहता है, लेकिन उसे सही राह बताने वाला कोई नहीं है। उसने उस लड़के से प्रार्थना की कि वो ही उसके लिए कोई रास्ता बना दे। उस लड़के ने उसे अपनी परेशानियाँ तो बताईं लेकिन आश्वासन भी दिया कि वो उसके लिए भी कुछ करेगा।
मानव ने उस लड़के को एक बोरी उठा कर मंडी में ले जाने के लिए भी कहा, लेकिन जब मानव ने अपनी पीठ पर बोरी लादी तो उससे एक कदम भी न चला गया, सो उसने उस लड़के से कोई दूसरा काम ढूंढने के लिए कहा मानव के एक मामा, जो कभी-कभार समय निकालकर मानव की माँ से मिलने चले आते थे, मानव की किस्मत देखिए कि अगले दिन जब वह स्कूल से घर लौटा तो आज उसके वही मामा उसके घर आए हुए थे। उसने अपने मामा से प्रार्थना की कि वह जाने से पहले एक बार उनसे बात करना चाहता है।
दरअसल मानव इस बात को जानता था कि जब उसके ये मामा गांव से उनके घर पर रहने के लिए आए थे, तब उनके भी सामने यही समस्या आई थी कि वे क्या करें, क्या न करें, परन्तु थोड़ा-बहुत पढ़े-लिखे होने के कारण उनके सामने ये समस्या ज्यादा देर न टिक सकी और उन्हें वहीं पास के बाजार की एक दुकान में काम मिल गया था।
शाम को जब मानव के मामा जाने लगे तो मानव ने उनसे भी प्रार्थना की कि वह भी बुरी आदतों को छोड़ना चाहता है और अच्छा इंसान बनना चाहता है, जिससे इस समाज में उसे इज्जत और प्यार मिल सके।
मानव की आँखों में आँसू देख मामा भी अपने आंसू न रोक सकेऔर भर्राई हुई आवाज में मानव को दिलासा देकर एक तरफ हो लिए। मानव के लिए एक-एक दिन काटना पहाड़ पर चढ़ने के समान हो गया था, लेकिन कहा जाता है कि यदि आप बुराइयों को छोड़ अच्छाई की तरफ चार कदम भी चलेंगे तो अच्छाई भी आपको अपनाने के लिए चालीस कदम आपकी तरफ बढ़ेगी | आज यही बात चरितार्थ होने जा रही थी।
इत्तिफाक से आज रविवार था और दोपहर को मामा जी मानव के घर की तरफ आ निकले थे। मामा जी के चेहरे पर प्रसन्नता की लकीरें साफ नजर आ रही थीं | लेकिन मानव को बताते हुए उन्हें बहुत हिचक भी हो रही थी | लेकिन परिस्थितियों को देखते हुए इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था।
मामा जी ने मानव को समझाना शुरू किया कि काम कोई भी हो, छोटा नहीं होता। आज जितने भी बड़े-बड़े आदमी हैं, उन्होंने अपनी जिंदगी में हमेशा काम को ही महत्व दिया, काम के छोटे या बड़ा होने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा |
दरअसल वे पैसे कमाने के महत्व को समझना चाहते थे और जब उन्होंने इस महत्व को समझ लिया तो वे छोटे से बड़े होते गए।
मानव भी मामा की इस भूमिका को समझ रहा था, सो मामा जी के कह चुकने के बाद मानव ने मालिक और दुकान का पता पूछा और शाम को मिलने के लिए जाने की सोच, निकल लिया, लेकिन आज तो रविवार था, सो आज दुकान बंद होगी। इसलिए वह कल जाएगा। मानव ने मन ही मन कुछ सोचा और वह रात की इंतजार करने लगा।
मानव रात का खाना खाते हुए मन ही मन कुछ सोच रहा था, परन्तु वह भावों को चेहरे पर नहीं आने दे रहा था। वह चाहता था कि वह जो कुछ भी करे, उसका पता उसकी माँ को न चले क्योंकि माँ केवल माँ होती है। किसी भी कीमत पर वह नहीं चाहेगी कि उसका बेटा किसी जंजाल में फंसे।
रात के ग्यारह बजे थे। मानव ने धीरे से करवट लेकर देखा तो माँ सो रही थी। उसने बिना किसी आहट के जमीन पर कदम रखे, परन्तु माँ तो आखिर माँ होती है। उसने भी हल्की सी आँख खोल देखा तो मानव कहीं जाने की तैयारी कर रहा था। माँ को सोता जान मानव ने चप्पल पहन घर से बाहर का रुख कर लिया।
वह अपने “रात्रि दोस्त” कर्मेश, हाँ उसका नाम यही था, के पास जा रहा था। करीब आध-पौन घंटा चलने के बाद वह अपने कर्मेश के ठिकाने पर पहुंच गया, परन्तु वह अभी तक नहीं आया था। उसने थोड़ी-देर इंतजार करने का मन बनाया।
थोड़ी-थोड़ी देर करते-करते तीन-चार घंटे बीत गए। अब वह ट्रक भी आ गया था, जिसके इंतजार में उसका दोस्त बैठा रहता था। मानव उस ट्रक के ड्राइवर के पास गया और अपने दोस्त के बारे में पूछा। ट्रक ड्राइवर ने जो बताया, उससे मानव के पैरों की जमीन खिसक गई।
ट्रक ड्राइवर का कहना था कि दो दिन पहले ही कर्मेश के घर कोई मेहमान आ गया था, जिसके लिए उसे कुछ और पैसों की जरूरत आ गई थी। मानव के इस दोस्त ने ड्राइवर से प्रार्थना की कि वह थोड़ी और ज्यादा बोरियाँ मंडी में पहुंचा देगा, जिससे वह आज दस की जगह बीस रुपए घर ले जा सके।
मानव का ये दोस्त जब बारहवीं-तेरहवीं बोरी उठाकर ले जा रहा था, तभी उसका मंडी में कीचड़ होने के कारण पैर फिसला और वह बोरी समेत कीचड़ में गिर गया। बड़ी मुश्किल से वही अपने आपको संभाल पाया। फिर भी उसने हिम्मत कर उस दिन अट्ठारह बोरी मंडी में पहुंचाई !
इतनी मेहनत, जिम्मेदारी, घर का खर्चा, मेहमान को सोचते हुए ट्रक ड्राइवर ने उसके हाथ पर जैसे ही दस-दस के दो नोट रखे, वह चौंक गया। कर्मेश को तो बहुत तेज बुखार था क्योंकि घर में इस रिश्तेदार मेहमान के आ जाने से आधे पेट खाना खाया था।
मानव उसकी बात सुन घर लौट चला। घर लौट उसने माँ को देखा। माँ को सोता जान वह भी अपनी चारपाई पर लेट गया | उसने माँ को देखा। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी।
सुबह माँ के जगाने पर वह झटपट नहाने के लिए नल पर पहुँचा। नहाते हुए भी उसके दिमाग में वही बात घूम रही थी कि शाम को वह क्या करेगा? स्कूल के लिए तैयार होते समय उसने निश्चय कर लिया था कि वह हर हालत में जो भी काम मिलेगा, वह करेगा। मानव को लगा कि यदि वह अपने दोस्त की जगह होता तो क्या होता?
सारा दिन इसी इहापोह में निकल गया कि शाम को न जाने वह कैसा काम बताएंगे। क्या मैं उस काम को कर भी पाऊँगा या नहीं?
दोपहर को मानव स्कूल से घर पहुँचा। खाना खाकर शाम की इंतजार न कर पाया तो मामा जी के बताए दुकान पर चल दिया। मानव के घर से मामा जी द्वारा बताया पता लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर था। बस का किराया लगभग दस पैसे था। आज मानव ने वह पैसे बचाने की सोची और पैदल ही उस पते को ढूंढने के लिए चल दिया।उस पते को ढूंढने में उसे ज्यादा वक्त नहीं लगा। वह एक साइकिल वाले की दुकान थी, जहां से साइकिल के पार्ट्स अन्य राज्यों को भेजे जाते थे।
दुकान के मालिक को नमस्ते कह वह एक ओर खड़ा हो गया। दुकान के मालिक ने चश्मे में से झांककर उसे देखा और अपने काम में लग गया। आधे घंटे बाद उस दुकान मालिक ने मानव को इशारे से अपनी ओर बुलाया |
दुकान मालिक ने मानव को इशारे से थोड़ी दूर पर लकड़ी की पेटी में पैकिंग होते हुए माल को दिखाया और बताया कि उसे भी ये काम करना है जिसके लिए उसे दो रुपए रोज़ मिला करेंगे।
मानव ने उस समय तो हां कर दी, परन्तु क्या वह इस काम को कर पाएगा? मन ही मन वह विचारों की ऊहापोह में लगा रहा और अगले दिन से आने के लिए कह वह घर वापस चल दिया।
सारे रास्ते उसने मन को समझाने में लगा दिया। दो रुपए केवल! देखेंगे! सोचेंगे! अभी कल तक का समय काफी है।
दरअसल वह करे या न करे की नेक सलाह अपने मित्र "कर्मेश" से भी लेना चाह रहा था क्योंकि उसे पूरी दुनिया में वह मित्र "कर्मेश" ही ऐसा लग रहा था, जैसे वह ही उसे सही सलाह दे सकता है।
रात होने को आई! मानव अपने घर लौट चुका था। घर पर मानव की माँ खाना बनाकर तैयार बैठी थी। मानव जिस समय खाना खाकर उठा, उस समय रात्रि के दस बज रहे थे। मालूम नहीं कर्मेश अभी आया होगा या नहीं।
थोड़ी देर इंतजार करने की सोच मानव माँ से रात को देर से आने के लिए कह घर से बाहर हो लिया। मानव में आ रहे परिवर्तन को माँ बड़े ध्यान से देख रही थी। मानव जिस समय अपने मित्र कर्मेश वाले ठिकाने पर पहुँचा, रात्रि के साढ़े ग्यारह बज चुके थे। वही रुटीन, किताबें सामने खुली हुई सरकारी बल्ब अपने खंभे पर जला हुआ, कर्मेश के हाथ में पैन और सामने खुली हुई कापी पर चलते हुए उसके हाथों को देख मानव की हिम्मत नहीं हुई कि उसका पढ़ाई से ध्यान हटा दे।
अचानक ही कर्मेश की नजर उस पर पड़ी। उसने मानव को हाथ हिलाकर अभिवादन किया और उसे अपने पास बुलाने का इशारा किया। मानव यही तो चाहता था और इसी काम के लिए तो यहां आया था। हाथ मिलाकर दोनों ने एक-दूसरे का अभिवादन किया। फिर दोनों उसी पटरी पर उस सरकारी खंभे के नीचे बैठ गए।
मानव के पूछने पर उसने अपना नाम कर्मेश बताया यानी ईश्वर का कर्म! क्या बात है, क्या नाम रखा है मां-बाप ने, कर्मेश, क्या ईश्वर का कर्म है।
मानव ने भी अपना नाम-परिचय दिया। अब मानव ने अपनी बात बतानी शुरू की कि उसे पैकिंग का काम मिला है, जिसके लिए उसे दो रुपए प्रति पेटी मिला करेंगे। मेरा तो मन नहीं है, लेकिन तुम जैसा कहोगे, मैं करूंगा।
कर्मेश का मानना था कि मानव को ये काम कर लेना चाहिए। उसका कहना था कि खाली से ठाली भला। कुछ न करने से कुछ करना अच्छा होता है। दूसरा काम ढूंढते रहो, जब दूसरा काम मिल जाए तो इसे छोड़ देना।
मानव को अपने इस दोस्त की ये सलाह सोलह आने अच्छी लगी। उसने अगले दिन से जाने का मन बना लिया। परन्तु मानव के मन में एक बात जो रह-रह कर आ रही थी, उसका हल भी उसने अपने उस दोस्त से पूछना उचित समझा!
वो बात थी...
क्या इतनी मेहनत करने के बाद भी वह अपनी पढ़ाई पर जोर दे पायेगा? कर्मेश ने अपना उदाहरण देते हुए बताया कि यदि वह चाहेगा तो उसकी तरह भी वह भी मेहनत कर सकता है।
मानव को उसकी बातों में दमखम नजर आया। वह चाहता तो था कि इस दोस्त से और भी बातें करे, लेकिन उसे लगा कि यदि उसने अपने इस दोस्त से बातें करनी शुरू कर दी तो उसकी आज की पढ़ाई का नुकसान होगा और अब वह कभी नहीं चाहेगा कि उसके इस दोस्त की पढ़ाई का नुकसान हो। इसलिए वह उससे विदा ले अपने घर की तरफ रवाना हो गया।
अपने बिस्तर पर लेटकर उसने अपने आप को मन ही मन ढृढ़ बनाना शुरू कर दिया।
अगले दिन...
उसने स्कूल की पढ़ाई मन लगाकर की।
शाम होते ही...
वह घर पर अपने स्कूल का बैग रख खाना खाकर माँ को थोड़े देर में आने को कह उस दुकान की तरफ चल दिया जहां आज अपनी जिंदगी की पारी खेलने का मौका मिलने वाला था।
आधे घंटे में वह दुकान पर खड़ा था।
मालिक जो-जो सामान कहता जा रहा था, वह भाग-भाग कर निकालकर सामान को वहां रखता जा रहा था, जहां से वह पेटी में भरकर गंतव्य पर जाना था |
शाम के सात बज रहे थे!
मानव पेटी वालों के साथ पेटी में सामान रखवाता जा रहा था। लेकिन उसका मन तो कहीं और था। पेटी में सामान रखकर उसे कसा जा रहा था। चूंकि वह नया था इसलिए उसे पेटी ट्रक वालों तक पहुंचाने के लिए नहीं दी जा सकती थी |
काम खत्म कर वह मालिक के पास खड़ा था। मालिक ने पेटी वाले को आवाज़ दे सारा काम होने की सूचना पा ली थी, तभी तो मालिक ने दराज खोली और उसमें से दो रुपए का नोट निकालकर मानव के हाथ पर रख दिया।
मानव ने उस नोट को हजार बार उलट-पुलट कर देखा, हजार बार उसे चूमा! उसकी आँखों में आंसू थे। सारी दुनिया से छुपकर सड़क के एक कोने में खड़ा आँखों में आंसू लिए मानव को आज अपनी पहली कमाई पर बड़ा फख्र हो रहा था।
ऐसी बात नहीं थी कि उसने कमाई पहले नहीं की थी। कमाई तो उसने तब भी करी थी, जब उसने दुकान खोली थी, परन्तु उस कमाई में और इस कमाई में दिन-रात का अंतर उसे लग रहा था। दुकान की कमाई को तो वह बातों की कमाई मानता था, जब कि आज के दो रुपए, ये शायद तीनों जहां की दौलत से भी कई गुना ज्यादा थे।
कर्मेश और ये नौकरी! मानव को तो लग जैसे उसकी चल निकली। दुकान से आकर स्कूल का काम निपटा खाना खाकर कर्मेश से मिलकर जिंदगी में आगे के लिए सलाह-मशविरा करना जैसे उसकी दिनचर्या थी।
समय गुजरता गया...!
एक दिन वह कर्मेश पर इतनी जोर से गुस्से हुआ कि उसका यह दोस्त भी देखता रह गया। परन्तु उसने मानव से कहा कुछ नहीं! बस उसका हाथ अपने हाथ में लेकर पुचकारता रहा।
थोड़ी देर बाद मानव का गुस्सा जब शांत हुआ तो उसने अपने इसी दोस्त से पूछा कि उसने गुस्से का जवाब गुस्से से क्यों नहीं दिया? तब उसके दोस्त ने जो जवाब दिया, वह मानव की जिंदगी का धर्म सूत्र बन गया।
मानव के इस दोस्त का जवाब था कि यदि गुस्से का जवाब गुस्से से दिया जाए तो उसमें और तुम में क्या फर्क रह जाएगा और फिर गुस्से से कभी भी किसी भी समस्या का हल नहीं निकलता और सबसे बड़ी बात कि गुस्से से तुम कभी भी किसी को भी अपने से हमेशा के लिए दूर भी कर सकते हो। अब जैसे यदि मैं तुम्हारे गुस्से का जवाब गुस्से से देता तो तुम में और मुझ में फर्क ही क्या रह जाता और दूसरी बात, गुस्से में हम दोनों ही एक दूसरे को खो सकते थे। मेरे दोस्त, खोना बड़ा आसान है, पाना बहुत मुश्किल है। किसी के साथ भी बदतमीजी कर तुम उसे खो तो सकते हो, परन्तु उसका साथ पाने के लिए तुम्हें उसके बारे में सब कुछ जानना होगा, तभी तुम उसे पा सकते हो।
मानव का गुस्सा अब कुछ शांत हो चला था।
मानव को गुस्सा क्यों आया था? क्या था उसका गुस्सा ?
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