मानव के इस दोस्त ने मानव के गुस्से का कारण पूछा। तब मानव ने जो बताया उससे उसका भी मुंह खुले का खुला रह गया।
मानव को इस दुकान पर काम करते हुए चार महीने बीत चुके थे। वो पैसे का मूल्य समझ चुका था, तभी तो उसने अपने उस ग्राहक से संबंध स्थापित करने की जरुरत समझी, जिससे उसने एक सौ रुपए लेने थे। आज उसी के पास जाने के लिए उसने उस पेटी वाले अंसार से बात की। उसे अपनी परेशानी बताई। अंसार ने अपने ऊपर से बात टालने के लिए उसे मालिक के पास भेज दिया।
दिन-दुनिया से बेखबर वह अंसार के कहने पर मालिक के पास चला गया। जब वह मालिक के पास जा रहा था, तभी अंसार ने हाथ हिलाकर मालिक से मना कर दिया। इस इशारे को मानव ने देख तो लिया था, परन्तु वह अंसार को अपने भाई की तरह समझता था। वह मालिक के पास पहुंचा और उन्हें अपनी परेशानी बताते हुए विनती की कि वे उसे आज थोड़ी जल्दी जाने की इजाजत दे दे।
लेकिन मालिक ने झिड़कते हुए उसे मना कर दिया। मानव को इस तरह झिड़कना इसीलिए पसंद नहीं आया क्योंकि वह पूरी तरह मन लगाकर मेहनत करता था और आज उसने केवल एक घंटा पहले ही तो जाने की इजाजत मांगी थी। बस उसे इसी बात पर गुस्सा था, जो उसका कर्मेश पर उतरा था।
मानव ने देखा उसका ये दोस्त उसे देख मुस्कुरा रहा था।
मानव के पूछने पर कि वह उसे देख क्यों मुस्कुरा रहा है, कर्मेश ने जवाब दिया कि उसका ये गुस्सा बेकार का है। कारण, जिंदगी में ऐसे कई मोड़ आते हैं, जब हमें जिंदगी के कई अहम् फ़ैसले लेने पड़ते हैं | यदि हम उन फ़ैसलों को गुस्से में लें तो हो सकता है वही फ़ैसले हमारी जिंदगी को तबाह कर दें और यदि शांत मन से उन फैसलों को लिया जाये तो वे हमारी जिंदगी को कहीं से कहीं पहुंचा सकते हैं | एक दोस्त होने के नाते मैं तो तुम्हें यही सलाह दूंगा कि तुम इस काम को मत छोड़ो बल्कि इसके साथ-साथ दूसरे काम को भी देखते रहो और जब तुम्हें लगे कि तुम दूसरा काम संभाल सकते हो, तब इसे छोड़ देना | वैसे मेरी एक सलाह और भी है।
मानव ने वह सलाह भी सुनाने की सलाह दे दी। मानव के इस दोस्त का कहना था कि वह जब तक ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा नहीं दे देता, वह इस काम को करता रहे और चूंकि पता नहीं दूसरा काम तुम्हें इतना समय दे सके या नहीं कि तुम ग्यारहवीं कक्षा की पढ़ाई कर सको और भगवान न करे कि तुम फेल हो गए तो ऐसी नौकरी का क्या फायदा, जिसमें पूरी जिंदगी ही पछताना पड़े।
मानव आज जब स्कूल से लौटकर खाना खाकर दुकान पर पहुंचा तो मालिक के तेवर अलग ही नजर आ रहे थे।
हुआ यूँ कि अंसार की किसी गलती से कोई सा माल कहीं पहुंच गया था और अंसार उसका इल्जाम मानव पर लगा रहा था।
मानव ने हाथ जोड़कर मालिक को नमस्ते की तो मालिक का पारा तो पहले ही सातवें आसमान पर था, उस पर मानव का नमस्ते करना उसे गंवारा नहीं हुआ। उसने अपना और अंसार का गुस्सा मानव पर उतारना शुरू किया। दुकान के मालिक ने बार-बार पर्ची दिखा-दिखा कर मानव को खरी-खोटी सुनाई।
मानव ने वह पर्ची बड़े ध्यान से मालिक के ही हाथ में देख ली थी, इसीलिए वह मन ही मन मुस्कुरा रहा था।
मालिक से डांट खाने के बाद मानव ने केवल इतना ही कहा कि इस मामले से उसका कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि जिस तारीख की ये पर्ची है, उस तारीख को मैं आपके यहां काम पर नहीं आया था।
मानव के दिमाग की मालिक ने भी मन ही मन तारीफ भी की। उसने मानव को अंसार के पीछे लगा दिया और उसकी तमाम बातें उसे बताते रहने के लिए कहा।
फूट डालो और राजनीति करो की तर्ज पर सब मालिकों की तरह उसने भी अंसार और मानव के बीच फूट के बीज बो दिए थे।
मानव भी धीरे-धीरे सब कुछ समझता जा रहा था, तभी तो उसने दुकान के बाद और कर्मेश से मिलने से पहले अपने समय का सदुपयोग करते हुए टाइपिंग के एक इंस्टीट्यूट से टाइपिंग सीखनी शुरू कर दी थी।
अपने बदलते व्यवहार के कारण उसने सभी को अपना बनाना जो सीख लिया था।
अंसार के साथ काम करते हुए अब उसे लग रहा था कि उसका साथ अब ज्यादा समय का नहीं रहेगा। उसकी बातों से कर्मेश का भी यही मानना था। हालांकि उसने मानव के इस कदम को भी सराहा जो उसने अपने समय का सदुपयोग टाइपिंग सीखने के लिए बिताना शुरू कर दिया था।
समय गुजरता गया। मानव को दुकान पर काम करते हुए छह माह गुजर गए थे | अब उसे लगने लगा था कि वह अब काम छोड़कर अपनी पढ़ाई की ओर ध्यान लगाना शुरू कर दे, नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि वह फेल हो जाए और उसने जो सोच रखा है, वह धरे का धरा रह जाये | महीना समाप्त हो चला था | मानव के मन में विचार आया कि वह दो दिन पहले ही मालिक को अपनी समस्या के बारे में बता दे और अगले महीने से न आने के लिए कह दे | ये सोच अगले दिन दुकान बंद होने से पहले ही मानव अपने दुकान मालिक के पास पहुंचा और अपनी समस्या बताई।
दुकान मालिक पहले से ही गुस्से में बैठा था, मानव को सामने देख और भड़क उठा और तेज गुस्से में उससे आने का कारण पूछा। मानव ने जब अपनी समस्या बता उससे चार माह का समय मांगा कि जब उसके पेपर खत्म हो जाएंगे , वह स्वयं काम पर आ जाएगा।
दुकान मालिक का जवाब था कि शायद उसे यहां से और भी अच्छा काम मिल गया है, तभी वह उसे छोड़कर जा रहा है। मानव के लाख इंकार करने पर भी दुकान मालिक को यकीन नहीं आया। मानव को भला-बुरा कहने के बाद भी जब दुकान मालिक को लगा कि शायद ये बच्चा सही कह रहा है, तब थोड़ा नरम होकर दुकान मालिक ने मानव से कहा कि वह उसकी मेहनत से बहुत खुश है और जब भी उसके पेपर खत्म हों, वह यहां आ जाए।
मानव के मन में कुछ और ही था, फिर भी उसने दुकान मालिक को कह दिया कि वह पेपर खत्म होने के बाद उनके पास जरूर आएगा। मानव अब पूरी तन्मयता से अपनी पढ़ाई की ओर लग गया। लेकिन अभी आमदनी की समस्या का समाधान नहीं हो पाया था। महंगाई थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। बड़े भइया, जो अब अपने पापा की जगह कंपनी में लग चुके थे, पक्के नहीं हुए थे, इसलिए उनको भी "डेली वेजेस" वाले चालीस रुपए ही मिला करते थे |
किस्मत ने फिर पलटा खाया |
एक दिन मानव के मामा, जिन्होंने मानव को उस दुकान पर नौकरी दिलाई थी शायद उन्हें पता चल गया था कि मानव ने वहां से काम छोड़ दिया है।
थोड़ी देर तक तो इधर-उधर की बातें होती रहीं। उसके बाद मामा जी ने असली बात की और इशारा किया कि अब आगे क्या इरादा है? वहां से तो काम छोड़ दिया।
मामा जी को मानव ने अपनी परेशानी बता दी कि अब उसकी पढ़ाई पर बहुत ज्यादा फर्क पड़ना चालू हो गया था, इसीलिए उसने ये काम छोड़ दिया। परन्तु यदि उनकी नजर में ऐसा कोई काम हो, जिसे पार्ट टाइम करते हैं, केवल एक-दो घंटे का, तो उसे जरूर बता दें। मानव ये कहना भी नहीं भूला कि अब तो उसने टाइपिंग भी सीख ली है।
मामा जी ने उसे काम का आश्वासन तो दे दिया, लेकिन जब तक काम न मिले...तब तक क्या किया जाए?
मामा जी शायद घर से ही कुछ सोचकर आए थे और उसी की भूमिका बना रहे थे। उन्होंने धीरे-धीरे मानव के मन को टटोलना शुरू किया। दरअसल वे चाहते थे कि पहले मानव के मन को टटोल लिया जाए, उसके बाद ही उसे काम के विषय में बताया जाए।
मामा जी ने भूमिका की दुबारा शुरुआत की।
उनका कहना था कि यदि आदमी का अपना व्यवसाय हो तो वह जब चाहे उसे बंद कर दे और जब चाहे खोल ले। नौकरी में तो आदमी बंध जाता है। जरूरी नहीं कि व्यवसाय बहुत ही लंबा-चौड़ा हो।
मानव ऐसे किसी व्यवसाय को नहीं जानता था। उसने तो आज तक बड़ी-बड़ी दुकानों को ही देखा था।
मामा जी ने आगे की भूमिका तैयार करते हुए कहा कि तेरा व्यवसाय भी ऐसा ही होगा, जो चलता फिरता होगा, पैसा भी कोई नहीं लगेगा और जितना दुकान मालिक तुम्हें देता था, उतना ही एक-दो घंटे में कमा भी लेगा।
मानव के चेहरे पर हंसी की लकीर खिंच आई थी। व्यवसाय वह भी पैसे के बिना तो मामा जी ने ऐसे व्यवसाय के लिए पहले क्यों नहीं बताया।
मामा जी ने मानव से कुछ अखबार और कुछ कापियां मंगा लीं।
अब उन्होंने अपनी बहन यानि मानव की मां से लेई (गोंद) बनाने के लिए कहा। लेई बनकर भी आ गई।
मामा जी ने उस कापी में से एक बीच का पेज फाड़ा। उसे लेई लगाकर चिपका दिया। अब उस पेज ने गोल आकार ले लिया था।
मामा जी ने उसे नीचे की तरफ से पकड़कर इस ढंग से मोड़ा कि उसने “लिफाफे” का आकार ले लिया। अब उन्होंने मानव से इसकी “प्रैक्टिस” करते रहने के लिए कहा और अपनी बहन से मुखातिब हो चले।
मानव अपनी मां के साथ लिफाफे बनाने के काम में लग गया। दोपहर तक स्कूल और फिर अपनी साइकिल उठा, थैले में वे कागज के लिफाफे डाल, बेचने के लिए चल देता था मानव।
शाम तक चार-पांच रुपए कमा ही लाता था मानव। अब उसके पास पढ़ाई और इन लिफाफों को बेचने के अलावा और कुछ काम न था।
वक्त गुजरता गया! मानव की पढ़ाई की मेहनत रंग लाई। वह अच्छे नहीं तो बुरे भी नहीं अंकों में पास हो गया था। वह अपने पास होने की खुशी में सबसे पहले जिसको बताना चाहता था, वह था उसका दोस्त कर्मेश, पर वक्त था कि गुजरने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसे अपने दोस्त से मिले भी तो एक अरसा हो गया था।
दरअसल सारे दिन साइकिल चलाने की जद्दोजहद के बाद स्कूल से मिले होमवर्क से उसकी थकान इतनी हो जाती थी कि उसे नींद कब आ जाती, उसे पता ही नहीं चल पाता और वह दोस्त कर्मेश से मिल ही नहीं पाता था और आज उसने अपनी खुशी में उसे शामिल करने का सोच ही लिया था। आज वह कर्मेश से मिलने जरूर जाएगा।
शाम होने को आई! मानव भी बस सारा काम निपटाकर खाना खाकर कर्मेश से मिलने का समय निकाल रहा था।
तभी... सामने खड़े व्यक्ति को देख उसका माथा ठनक गया। उसे अब अपने जीवन की नैय्या हिलती-डुलती नजर आने लगी। उसे क्या पता था... भाग्य फिर उसे कहां ला पटकेगा।
सामने उसकी मां के मुंहबोले भाई यानी मानव के रिश्ते के मामा खड़े थे।
बीड़ी की लत शायद इन्होंने ही तो लगाई थी | रात को घर के बाहर शायद इन्होंने ही तो रखा था।
मानव की रूह कांप गई। वह कैसे अब परिस्थिति को संभालेगा।
लेकिन फिर भी... मानव को तैयार देख मामा भी उसके साथ बाहर जाने को तैयार हो गए थे।
मानव को पता था कि यदि वे गए तो शायद उनका फिर वही पुराना प्रोग्राम शुरू हो जाएगा। जिस लत को वह छोड़ चुका था, वही लत दुबारा फिर शुरू हो जाएगी, चाहे वह बीड़ी की हो या घर से बाहर रहने की।
पीछा छुड़ाए तो कैसे?...
एक उपाय है... मानव ने अपनी मां की आंखों में झांका! वह मां भी क्या जो बच्चे की आंखों में झांककर उसकी परेशानी का पता न लगा सके।
मानव की मां ने अपने मुंहबोले भाई को अपनी बातों में लगा मानव को निशाना बनाते हुए उसे जल्दी आने को कहने लगी, जबकि मानव की मां को पता था कि वह जल्दी आने वाला नहीं।
मानव ने मन ही मन मां को धन्यवाद दिया। लेकिन आखिर कब तक...
मानव जब तक कर्मेश के ठिकाने पर पहुंचा, वह आया ही नहीं था। मानव उसकी इंतजार में वहीं बैठ गया, लेकिन वह नहीं आया। रात आई और चली भी गई। न उसका दोस्त आया और न ही वह टैम्पो, जिसकी सब्जी वह अपनी पीठ पर लादकर मंडी में छोड़ता था।
किससे पूछे... वह तो उन दुकानदारों को भी नहीं जानता था जिनकी सब्जी वह छोड़ता था और अगर वह उन दुकानदारों तक पहुंच भी जाता तो दुकानदार उससे केवल इतना ही तो कहते कि उन्होंने भी उसे कई दिनों से नहीं देखा है। उसका भी तो रिजल्ट आ ही गया होगा...
क्या हुआ होगा...कहीं वह फेल तो नहीं हो गया...उसकी सारी मेहनत पर कहीं पानी तो नहीं फिर गया होगा...
मानव को लगा... जैसे उसने अपने इस दोस्त की जगह ले ली... और वह फेल हो गया है... ऐसे में वह क्या करता... फांसी लगा लेता... घर से भाग जाता... जाता भी तो कहां, आखिर घर की जिम्मेदारी भी तो कुछ होती है...
तो फिर वह क्या करता... चलो, कभी मिलेंगे तो पूछूंगा...
वैसे मुझे तो अब लगने लगा है कि वह कोई देवदूत ही था, जो मेरी जिंदगी को बनाने आया था, मुझे सही राह दिखाने आया था...अब राह दिखा दी...चलना मुझे ही है |
सुबह जब मानव घर पहुंचा, मां जग चुकी थी | रात की सारी बात बता मानव ने एक जंभाई ली | रात की खुमारी उसकी आँखों में थी |
थोड़ी देर बाद ही वह नींद के आगोश में था | नींद से जगा तो दोपहर हो चुकी थी | नहा-धोकर वह साइकिल लेकर थोड़े-बहुत लिफाफों की गड्डी को बेचने का मूड बनाने में लगा था
आज उसने सभी गड्ढियां एक-दो घंटे में ही निबटा दी थीं। आखिर निबटती भी क्यों नहीं, उसके अपने ग्राहक जो बन गए थे।
घर वापिस लौटते हुए मानव को एक जगह भीड़ खड़ी दिखाई दी। वह भीड़ की तरफ हो लिया। देखा, एक उसी की उम्र का लड़का घायल अवस्था में वहां पड़ा है। उसके आसपास अखबार बिखरे पड़े थे, तो वह हॉकर है।
मानव भीड़ को चीरता हुआ उस लड़के तक पहुंचा। मानव ने जैसे ही उस लड़के को देखा तो चौंक उठा। लेकिन उसने अपना यह चौंकना भीड़ पर जाहिर नहीं होने दिया।
मानव ने भीड़ में खड़े लोगों से उसे अस्पताल तक पहुंचाने की विनती की, लेकिन किसी पर उसका असर तक नहीं हुआ। उसी भीड़ में एक रिक्शेवाला भी तमाशबीन खड़ा था। भीड़ छंटने लगी। रिक्शेवाला भी अपनी रिक्शा की तरफ चल दिया, जो उसने थोड़ी दूर पर खड़ी कर रखी थी। मानव भी ये सब कुछ देख रहा था, साथ ही उस घायल लड़के को भी सांत्वना दे रहा था, जो और कोई नहीं, उसी का वही “दोस्त कर्मेश” था।
मानव ने भागकर रिक्शा वाले को पकड़ा और उससे उस घायल लड़के को अस्पताल तक पहुंचाने के लिए कहा।
ऐसी अवस्था में, जब कि इंसान ही इंसान के काम आता है, रिक्शेवाले ने उससे उस घायल लड़के को अस्पताल तक पहुँचाने का एक रुपया माँगा | मानव ने जेब में हाथ डालकर देखा। लिफाफे बेचकर उसकी आमदनी दो ही रुपए तो हुई थी। उसने मन ही मन कुछ सोचकर उस रिक्शावाले को उस घायल को पहुंचाने के लिए कहा और मानव अपनी साइकिल की तरफ बढ़ चला।
अस्पताल के बाहर साइकिल खड़ी कर मानव ने अचेत अवस्था में रिक्शे में अधलेटे अपने दोस्त को संभाला। कंधे का सहारा देकर रिक्शा वाले की सहायता से मानव ने अपने दोस्त को रिक्शा से उतारा और रिक्शा वाले को अपनी जेब से एक रुपया देकर अस्पताल की ओर ले चला।
इमरजेंसी के गेट से उसने अपने दोस्त के साथ अस्पताल में प्रवेश किया। डाक्टर से उसने प्रार्थना कर अपने दोस्त को देखने के लिए कहा। डाक्टर ने नर्स से उसके घाव पर टांके लगाने को कह मानव को एक पर्ची थमा दी, जिस पर कुछ दवाइयां लिखी थी।
डाक्टर ने मानव को बताया कि कुछ दवाइयां तो यहीं अस्पताल से मिल जाएंगी, जबकि एक-दो दवाई उसे बाजार से लानी होंगी।
मानव के पूछने पर कि उसे कब तक छुट्टी मिल जाएगी, डाक्टर साहब ने बताया कि शाम तक आराम आने के बाद उस छुट्टी दे देंगे।
कर्मेश ने न तो कभी उसे अपना घर दिखाया था और न ही कभी उसे अपने घर का पता बताया था। इसलिए मानव को लगा कि वह अपने इस दोस्त के घर से किसी को बुला भी नहीं सकता, अतः उसे शाम तक उसी के पास रहना होगा।
शाम को... अचानक ही... कर्मेश के शरीर में अचानक ही पीड़ा उठने लगी। उसने मानव को इशारे में कुछ कहना चाहा, जिसे मानव नहीं समझ सका।
मानव भागा-भागा डाक्टर के कमरे में पहुंचा और डाक्टर साहब को अपने साथ चलने के लिए कहा। मानव डाक्टर साहब को लेकर अपने दोस्त के बिस्तर के पास पहुंचा ही था कि डाक्टर और नर्स की बात सुन वह सकते में आ गया।
कर्मेश को कोई भयंकर “गुम चोट” लगी थी जिसे डाक्टर भी समझ नहीं पाए थे और उन्होंने तभी कह दिया था कि शाम तक इसे छुट्टी मिल जाएगी।
“गुम चोट” सीने में कहीं गंभीर जगह लगी थी, तभी तो मानव के इस दोस्त के मुंह से अब खून निकलना शुरू हो गया था। डॉक्टर ने एक पर्ची पर कुछ दवाइयां लिखकर मानव को लाने के लिए कहा।
मानव ने जेब में हाथ डाला...
क्या मानव के पास इतने पैसे थे कि वह अपने दोस्त को बचने के लिए दवाइयों का इंतज़ाम कर पायेगा ?
पढ़िए अगले अंक में...
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