मरने से उसे बड़ा डर लगता है। मरने के बाद क्या होगा? उसके अंदर जो बैठा है, वह कहाँ चला जाएगा?
तो फिर एक काम किया जाए।
मौत ऐसी चुनी जाए कि दर्द की छटपटाहट का एहसास तक न हो।
तो फिर... रेल के आगे आ जाना।
कैसा रहेगा रेल के आगे आ जाना।
हाँ-हाँ, यही ठीक रहेगा। मौत की छटपटाहट का भी पता नहीं चलेगा और काम भी झटपट हो जाएगा।
तो फिर पक्का रहा शाम को ही इस काम को अंजाम दे दिया जाए।
नहीं—थोड़ा सोचा जाए।
दिमाग में तर्कों की होड़ लगी हुई थी।
परन्तु आज तक जैसा होता आया है, अच्छाई हार गई, बुराई जीत गई।
प्रकृति का एक नियम है कि बेशक से बुराई जीत तो जाती है, परन्तु इस जीत के बाद मन में जो ग्लानि उत्पन्न होती है, उससे पार नहीं पाया जा सकता । अच्छाई बेशक से हार जाए, लेकिन जब उस हार का परिणाम सामने आता, तब लगता है कि हमने यह निर्णय लेकर अच्छा ही किया।
यह प्रकृति का नियम है। यहाँ पर भी यही हो रहा था।
मानव के मन की बुरी प्रवृत्ति मानव के मन पर हावी होती जा रही थी। अच्छाई साथ छोड़ती जा रही थी। कभी वह अपनी तो कभी अपनी माँ की जिंदगी के बारे में सोचने लगता। परन्तु अब बुराई ने अच्छाई को पटक दिया था यह कहकर कि स्वाभाविक मौत हो जाएगी, तब भी तो तेरी माँ को अकेले, और वैसे भी वह अकेली कहाँ थी, बड़ा भाई तो उनकी देखरेख के लिए है ही, और अगर भाभी के कहने पर बड़े भाई ने माँ को अकेले छोड़ दिया, तब भी तो उन्हें रहना तो पड़ेगा ही।
बुराई जीत गई, अच्छाई हार गई।
शहर के बाहर जो पुल है, वहाँ से रात्रि सात बजे से दस बजे तक रेलों का आवागमन लगा रहता है। वहाँ से रात्रि सात बजे से दस बजे तक रेलों का आवागमन लगा रहता है | वह वहीं जाएगा और दुनिया को अलविदा कह देगा।
मानव शाम होने का इंतज़ार करने लगा
शाम के चार बजे थे।
मानव अपनी माँ के साथ बैठा चाय पी रहा था। अपनी मोटी-मोटी आँखों से अपनी माँ के मासूम चेहरे को देखते हुए सोच रहा था कि माँ, देख लो अपने बेटे को आज के बाद शायद दोबारा नहीं देख पाओगी। तेरी देखभाल के लिए तेरे पास बड़ा बेटा है न, वही आज के बाद तेरी देखभाल करेगा।
माँ भी बड़े प्यार से मानव को देख जा रही थी। चाय खत्म करके दोनों उठ खड़े हुए। मानव का दिल कर रहा था कि वह माँ को ऐसे ही देखता रहे।
बस दो घंटे और... और फिर... वह इस दुनिया को अलविदा कह चुका होगा।
मन में अभी भी उथल-पुथल मची हुई थी। मेरे जाने के बाद... क्या होगा मेरी माँ का। एक अनबुझ पहेली... समझ में नहीं आ रहा...
लेकिन अब चाहे जो कुछ हो... अपने निर्णय से नहीं टलेगा... वह।
उसने आज अगर इस दुनिया को अलविदा कहना है तो कहना है।
बस यही निर्णय और यह निर्णय लेने में उसे दो घंटे लग गए। इन दो घंटों में उसने अपनी माँ के चेहरे को न जाने कितनी बार देखा होगा... बार-बार यह सोचकर कि क्या होगा... क्या मेरी माँ को मेरी मौत की खबर मिलेगी... क्या सहन कर पाएँगी मेरी माँ की ये दोनों आँखें, जब यह पुलिस के कहने पर मेरी लाश को पहचानेंगी, कितने अनगिनत आँसू ऐसे होंगे, जो जब इनकी आँखों से बाहर नहीं निकल पाएँगे, जब लोग मुझे कहीं भी ले जाने की तैयारी में लगे होंगे।
मैं कमजोर क्यों पड़ता जा रहा हूँ... मुझे कमजोर नहीं पड़ना है... मेरा निर्णय केवल मेरा है... मुझे अपने निर्णय से हिलाना नहीं है।
खुदकुशी तो खुदकुशी...सोचकर मानव उठा और चल दिया शहर के उस पुल के पार, जो दूसरे शहरों से जोड़ता था। मानव का निर्णय उसका अपना ही था... वह पुल पर चढ़ गया, जिधर शहर के बाहर रास्ता जाता था... उसी रास्ते पर हो लिया। उसके दिमाग में एक बात थी कि वह भी अपने दोस्त की तरह ही लावारिस घोषित हो जाए और लावरिसियों की तरह ही उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाए...
तभी किसी की आवाज ने उसे चौंका दिया। उसने अपने आसपास देखा! कोई न था। तो फिर ये आवाज कैसी थी!
कहीं मन का वहम तो नहीं!
आवाज ने कहा, “नहीं, ये तुम्हारे मन का वहम नहीं है। मैं सचमुच तुम्हीं से मुखातिब हूँ!”
मानव के चेहरे पर पसीना छलक आया। मौत के पीछे के सन्नाटे ने उसके चेहरे को पसीने से भिगो दिया था। वह इसी डर की वजह से तो मरना नहीं चाहता था। क्या इसी को तो मौत का दर्द नहीं कहते। उसने फिर आसपास देखा।
आवाज ने उसे अपना परिचय देते हुए बताया कि वह उसे जितना ढूंढ़ने की कोशिश करेगा, उतना ही वह परेशान हो जाएगा क्योंकि वह उसे दिखेगी नहीं।
तब फिर.... आवाज ने उसे फिर बताया कि वह उससे बात तो कर सकता है, परन्तु देख नहीं सकता। तो चलो कर लें बातें।
परन्तु किस तरह की! कौन सी बातों की बात कर रहा है वो! मानव का दिमाग सुन्न हो चला था। उसने इन सब “चीजों” के बारे में सोचा भी न था कि उससे कभी ऐसे भी मुलाकात हो जायेगी।
खेर... अब मुलाकात हो ही गई है तो...देखा जाएगा... वह तो खुदकुशी करने आया था। रेल के नीचे आने से अच्छा भगवान ने उसे ऐसी आत्मा के हाथों ही मौत दी हो। रेल के नीचे आने से शायद उसकी आत्मा को कष्ट हो तो कहीं भगवन ने उसे बिना कष्टों के ऐसी मौत भेज दी हो।
वह उस “आवाज” से बात करने के लिए मन पक्का करने लगा। आवाज ने उससे पूछा कि क्या उसने उससे बात करने के लिए मन पक्का बना लिया है?
मानव ने सकारात्मक उत्तर दिया।
आवाज ने पूछा कि वह यहाँ क्या करने आया है, क्यों करने आया है और कहाँ से आया है।
मानव ने उसे शहर का नाम बताया और अपनी “खुदकुशी” की बात को मानने उस "आवाज़" को स्पष्ट रूप से बताया और यह भी कि उसे इस दुनिया में कोई प्यार नहीं करता, इसलिए वह खुदकुशी करना चाहता है। लेकिन तुम कौन हो, मेरे बारे में इतना क्यों पूछ रहे हो, और एक बात जितना तुम पूछ चुके हो, इससे आगे पूछना भी मत!
मानव ने इतना कह तो दिया, लेकिन उसे लगा कि कहीं “आवाज” ने इसका बुरा मान लिया तो... वह तो अभी तक सुनता आया था कि यदि ऐसी "चीज़ें" बुरा मान लेती हैं तो वह फिर अपने अपमान का बदला लिए बिना नहीं मानती | "आवाज़" की फिर आवाज़ आई की वह अपने बारे में सब कुछ बताएगी, लेकिन मानव को वायदा करना होगा कि वह उसकी एक-एक बात को सच्ची मानेगा और अगर उसे लगे कि वाकई में "आवाज़" में एक सच्चाई है तो वह खुदकुशी का विचार त्यागकर वापस अपने घर चला जायेगा |
मानव ने “आवाज” की आवाज को मान लिया।
अब “आवाज” ने एक शर्त और लगा दी।
“आवाज” ने बताया कि वह उसे देखने या छूने की कोशिश भी न करे क्योंकि न तो वह किसी को दिखाई देता है और न ही ऐसी “चीजों” का कोई वजूद होता है, जिसे छुआ जा सके। हाँ, एक बात है, वह जब तक उसके पास है, दुनिया की कोई भी ताकत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
मानव को आभास हो चला था कि उसके साथ-साथ कोई चल रहा है।
“आवाज” ने बताया कि वह “यमदूत” के साथ-साथ “भूत” भी है।
इतना सुनना था कि मानव के पूरे शरीर में कंपकंपी के साथ पसीना उतर आया।
उसने चारों तरफ़ देखा तो दूर-दूर तक कोई न था।
"आवाज़" ने कहा कि अभी तो उसने अपने बारे में एक ही बात बताई है, उसी को सुनकर मानव पसीने से तरबतर हो गया है तो आगे की बातें तो शायद वह सुन ही न सके | मानव ने “आवाज़” से कहा कि वह ऐसी बातें न करे जिनसे उसे डर लगे।
“आवाज़” ने बताया कि चूंकि खुदकुशी करने के बाद उसे भी उसके जैसा ही बनना है, इसलिए उसे “डरने” की ज़रूरत नहीं है। “आवाज़” ने आगे कहा कि वह उसे डरा नहीं रहा, बल्कि हकीकत से रू-ब-रू करा रहा हूँ। लेकिन खुदकुशी से पहले वह उसकी बात सुन ले, फिर उसके बाद जैसे भी उसकी खुशी हो, वह कर ले | "आवाज़" की बात सुनकर मानव को थोड़ी तसल्ली हुई | "आवाज़" ने बताना शुरू किया कि वह एक ऐसे परिवार से सम्बन्ध रखता था, जो ज्यादा अमीर नहीं तो ज्यादा गरीब भी नहीं था | उच्च मध्यमवर्गीय परिवार था | उसके परिवार में उसके अलावा उसका एक भाई, एक बहन और माँ-बाप थे।
मैं बचपन से बहुत गोल-मटोल था। रंग गोरा, सेब जैसे गाल, हमेशा लाल-लाल रहते थे। लड़कियाँ मुझ पर मरती थीं। मेरे गालों पर प्यार करने के लिए बहाने लगाती थीं। कभी कोई बहाना लगाती थीं तो कभी कोई बहाने लगाए जाते थे।
स्कूल गया तो लड़के “लड़की आ गई” कहकर छेड़ते थे। मैं मटकता था। फिर भी मेरी चाल ऐसी थी कि उसमें अपने-आप “मटकना” आ जाता था। अपने गुरुजनों और माँ-बाप के आशीर्वाद से पढ़ाई में मैं अव्वल था। पांचवीं कक्षा पास करते ही मेरी जिंदगी ने जो बदलाव लिया, उसने आज मुझे इन हालात तक पहुँचा दिया है।
मानव के पूछने पर कि ऐसा क्या हुआ था, जो आज वह इस हालात में है, तब आवाज़ ने कहना शुरू किया।
हमारे स्कूल में छठी कक्षा में एक पी.टी. टीचर आए। उनकी नज़र हमेशा मुझ पर ही लगी रहती थी। किसी न किसी बहाने से जहाँ भी होते, मुझे बुलाते। मैं भी उसे गुरुजन का प्यार समझकर उनके पास चला जाता था। मुझे उनकी दिल की कालस का पता नहीं था।
एक दिन वह चॉकलेट लेकर आए। आज उनका कोई भी पीरियड मेरी कक्षा में नहीं था, अतः आधी छुट्टी में एक बच्चे के हाथ मुझे बुलवा भेजा। जब मैं उनके पास पहुँचा तो उन्होंने अपनी दोनों बाहें फैलाकर मुझे गोदी में उठा लिया और झट से मेरे गाल पर एक प्यार किया। तब उन्होंने गोदी में उठाए-उठाए मुझे अपनी जेब से चॉकलेट निकालकर दी। मैं चॉकलेट को गुरुजन का आशीर्वाद समझ रहा था। फिर तो कभी चॉकलेट तो कभी… और एक दिन तो हद ही हो गई!
मानव ने चौंकने का अभिनय कर आवाज़ को “सामने” आने के लिए प्रार्थना की।
“आवाज़” ने उसे बताया कि वह पहले ही कह चुका है कि वह उसे देखने का प्रयास न करे, वह समय आने पर सब कुछ बता देगा। मानव ने हिम्मत कर आवाज़ से आगे की बात पूछी, तब आवाज़ ने फिर कहना शुरू किया।
मेरी माँ की मुझे सख्त हिदायत थी कि मुझे जो कुछ भी खाने में अच्छा लगता है, वे वह चीज़ घर में ही बनाकर मुझे खिला देंगी। मैं कहीं बाहर बाज़ार का कुछ भी नहीं खाऊं, इसलिए मेरे माँ-बाप मुझे जेब-खर्च के नाम पर कुछ भी नहीं देते थे। जबकि मेरा मन भी करता था कि स्कूल के दूसरे बच्चों की तरह स्कूल के बाहर खड़े खोमचे-रेहड़ी वालों से आइसक्रीम या दालमोठ या टाटरी लेकर मैं भी खाऊं | उन बच्चों को खाता देखकर मेरा भी मन करता था, लेकिन मैं उन बच्चों को ही देखता रहता था।
ऐसा करते हुए पी.टी. टीचर ने कई बार मुझे देखा। और एक दिन… उन्होंने फिर एक बच्चे के हाथों मुझे बुलवा लिया। मेरे दोनों लाल-लाल गालों पर उन्होंने फिर एक चुम्बन जड़ दिया और मुझसे भी अपने गालों पर प्यार करने को कहा।
जब मैंने उनके गालों पर प्यार किया तो उन्होंने अपनी जेब से पाँच रुपये निकालकर मेरे हाथ में दिए और जब भी मेरा दिल कुछ खाने को करे तो मैं उनसे पैसे ले लिया करूँ, कहकर उन्होंने मुझे जाने दिया।
जेब में पैसे देखकर एक बार तो मन में आया कि ये पैसे मैं लौटा दूँ, लेकिन मेरे बुरे मन ने कहा कि ये पैसे मैंने माँगे थोड़े ही थे। उन्होंने तो अपनी खुशी से दिए हैं।
मैं पैसे लेकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसके बाद तो जब भी कुछ खाने की इच्छा होती, मैं उनके पास पहुँच जाता और उनसे पैसे लेकर अपनी इच्छापूर्ति कर लेता।
धीरे-धीरे यह बात सारे स्कूल में फैलने लगी कि मास्टर जी मुझे खाने-पीने के लिए पैसे देते हैं। मैंने एक दिन मास्टर जी से कह भी दिया कि आपके द्वारा पैसे देने की बात मेरे घर तक पहुँच गई है। इसलिए आज के बाद ये बंद और मेरे पापा ने ये पचास रूपए भिजवाए हैं, जो आज तक आपने मुझे थोड़े-थोड़े करके दिए थे |
मास्टर जी ने रुपये लेने से इंकार कर दिया और फिर एक तरकीब बताई, जिससे उनका “प्यार” मुझ पर ऐसे ही बरसता रहेगा। मास्टर जी का घर स्कूल से थोड़ी ही दूरी पर था।
मास्टर जी की तरकीब के मुताबिक मैं स्कूल से छुट्टी करके सबसे पहले घर जाया करूँ। फिर वहाँ से “फ्री ट्यूशन” का बहाना कर उनके घर पहुँच जाया करूँ। जहाँ पर थोड़ी देर पढ़ने के बाद वे घूमने जाया करेंगे और फिर जो चीज मुझे पसंद आएगी, वे मुझे दिला दिया करेंगे और पचास रुपये उन्होंने घर पर वापस न लौटाने की शर्त पर मुझे वापस कर दिए। मेरे उन पीटी सर ने मुझ जैसे भोले-भाले, सीधे-सादे लड़के को पैसे का पीर बना दिया था।
मेरे पूछने पर कि मैं उनके घर पहुँचूँगा कैसे, तब उन्होंने कहा कि स्कूल की छुट्टी के बाद स्कूल के कोने पर वह मेरा इंतज़ार करेंगे और फिर उसके बाद वे अपना घर दिखाने के लिए मुझे ले चलेंगे। घर दिखाने के बाद वह रिक्शे से मुझे मेरे घर छुड़वा देंगे। मैंने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
स्कूल की छुट्टी के बाद मैं अपने पीटी सर के साथ उनका घर देखने के लिए चला गया। थोड़ी देर बाद मैं रिक्शे से घर लौटा तो मैंने गली के नुक्कड़ पर ही रिक्शा रुकवा दिया, जिससे मेरे घर वाले न देख सकें कि मैं रिक्शे से कहाँ से आ रहा हूँ।
घर में घुसते ही माँ ने पूछ लिया कि कहाँ गए थे, मैंने कहा दोस्त के घर गया था।
ऐसा तेरा कौन-सा दोस्त बन गया जिसके घर तू गया था, माँ ने अनुरोध किया कि मैं भी उस दोस्त के घर को देखना चाहूँगी। अब तो मेरे काटो तो खून नहीं।
अब एक झूठ को छिपाने के लिए हज़ार झूठ और बोलने पड़ेंगे।
शाम को पिताजी आए तो माँ ने सभी बातें उनसे कह डाली। अब तो पिता जी भी पीछे पड़ गए कि हम अभी उस दोस्त के घर जाएँगे। मैंने लाख बहाने लगाए कि मैं दोस्त के घर की गली-मोहल्ला भूल गया हूँ।
दोपहर का खाना माँ ने हटा लिया था और रात का खाना पापा जी ने खाने नहीं दिया और उस पर मेरे झूठ पर पिटाई अलग।
रात को घर से बाहर जाने की इज़ाज़त न थी, नहीं तो मास्टर जी द्वारा लौटाया गया पचास के नोट से मैं तो क्या, पड़ोसी भी पेट भर लेते |
रात को मैंने भयंकर निर्णय ले लिया। अब मैं बाज़ार में ही पेट भरा करूँगा। अब मैं कोई बच्चा तो रहा नहीं कि जब जी चाहा थप्पड़ मार दिया, भूखा रख दिया। बाल मन ने सोच लिया था कि माँ-बाप तो केवल प्यार का दिखावा करते हैं, सच्चाई तो यह है कि प्यार तो मुझे केवल पी.टी. सर ही करते हैं।
मैं जाऊँगा, ज़रूर जाऊँगा अपने पी.टी. सर के पास चाहे मुझे उसके लिए कितने ही झूठ बोलने पड़ें और मैं झूठ का सहारा लेकर पी.टी. सर के पास जाने लगा। लेकिन मेरा ख़याल ग़लत था। मेरी माँ मेरे लिए खाना लगाए बैठी मेरा इंतज़ार कर रही थी। उनके पूछने पर कि मैं कहाँ रह गया था, मैंने झूठ बोल दिया कि मैं अपने दोस्त के घर चला गया था।
माँ ने ताना मारा—तब तो उसने पेट भर खाना भी खिला दिया होगा। माँ ने खाने की थाली सामने से हटा ली। मेरे चेहरे ने मेरे झूठ को पकड़वा दिया था।
काश! उस दिन मैंने झूठ नहीं बोला होता। मेरे भोलेपन पर पैसे की चमक जो चढ़ गई थी। उसी पैसे की चमक ने मेरे भोलेपन को छीन लिया था। पैसा तो पैसा ही होता है न!
एक बात जो उस दिन समझ नहीं आई थी, वो आज समझ आ रही है और वही बात तुम्हें बताता हूँ—पैसा सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है, और कुछ नहीं होते हुए भी सब कुछ है। आई बात समझ में।
मानव ने इंकार में सिर हिला दिया। देखो मानव! जब तक इंसान ज़िंदा रहता है, तब तक “हाय पैसा—हाय पैसा” रहता है और जब बुढ़ापा आता है, तब सबसे पहले यही पैसा साथ छोड़ देता है। पैसा तुम्हें उठाकर श्मशान घाट तो नहीं पहुँचा सकता, परन्तु इस पैसे के कारण जो तुम्हारे चार यार-दोस्त और रिश्तेदार बन जाते हैं, वे ही तुम्हें उठाकर श्मशान तक पहुँचाते हैं। इसलिए नहीं कि वे तुम्हें प्यार करते हैं, वे तुम्हें उठाकर श्मशान तक पहुँचाते हैं। इसलिए नहीं कि वे तुम्हें प्यार करते थे, इज्ज़त करते थे बल्कि इसलिए कि तुम्हें जल्द से जल्द श्मशान पहुँचाकर तुम्हें भुलाकर तुम्हारे द्वारा जमा किए गए पैसे को अपने-आप से ख़र्च कर सकें।
मानव चुपचाप आवाज़ की बातें सुन रहा था।
"आवाज़" ने उसे आगे बताया कि उसे अब तक चटखारे की आदत ऐसी पड़ चुकी थी कि वह उस आदत को चाहकर भी नहीं छोड़ पा रहा था और एक दिन पी.टी. सर ने मेरी इसी “कमज़ोरी” का फ़ायदा उठाना चाहा।
क्या थी मानव की ये कमजोरी?
पढ़िए अगले अंक में। ...
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