उन्होंने कहा कि या तो मैं उनकी “शारीरिक आवश्यकताओं” को पूरा करूँ या उनके वे पैसे लौटा दूँ जो उन्होंने मुझे दिए थे। उन्होंने मुझे देते हुए एक कागज़ पर लिख रखे थे। मैं तो जैसे आसमान से गिरा। न जाने सच था या झूठ, उन्होंने डेढ़-दो सौ रुपये का हिसाब मेरे सामने रख दिया था।
अब मैं कहाँ जाऊँ! क्या करूँ!
मेरे चेहरे की उड़ती हवाइयों को देख पीटी सर ने फिर पलटा खाया कि यदि मैंने अगले दिन तक उनके पैसे नहीं लौटाए तो वह उनके घर पर पहुँचकर उसके माँ-बाप के सामने सारी बात बता देंगे।
मेरे लिए तो आगे कुआँ पीछे खाई थी।
जैसे ही पीटी सर ने यह कहा, मुझे पापा के चाँटे की याद हो आई, जो केवल घर देर से लौटने पर लगा था और यहाँ तो “उधारी” का मामला था। पापा के हाथों वहाँ तो “उधारी” का मामला था। पापा के हाथों में डंडा चमक आया था मेरी कल्पना में।
मैंने पीटी सर से दो दिन का समय माँगा कि या तो मैं दो दिन में उनके सारे पैसे लौटा दूँगा या फिर उनकी दूसरी बात को मान लूँगा। पीटी सर ने यह कहते हुए कि यदि मैं उन्हें धोखा देने की कोशिश करूँगा तो अच्छा नहीं होगा। वे किसी न किसी तरह से मेरे माँ-बाप तक पहुँच ही जाएँगे।
अब डरने की बारी मेरी थी।
मुझे कोई आसपास ऐसा नज़र नहीं आ रहा था, जिससे मैं दो सौ रुपये उधार ले सकता। मुझे अब बार-बार यही लग रहा था कि मुझे उनकी “दूसरी शर्त” को ही मानना पड़ेगा।
ज़िंदगी में “शर्म” का पर्दा ही एक ऐसा होता है, जो एक बार उतर जाए तो दोबारा कभी भी फिट नहीं होता।
आवाज़ ने कहा—दो बातें बताता हूँ, ज़िंदगी में काम आएँगी, यदि आज तुम्हें खुदकुशी से बचा सका तो...! सुनो... इंसान की यह फितरत है कि यदि वह किसी भी अच्छे या बुरे काम को एक बार कर लेता है तो चाहकर भी वह उस रास्ते से तौबा करना चाहे तो नहीं कर सकता। वह रोज़ सुबह उठकर उस काम से तौबा तो कर लेगा, लेकिन शाम होते-होते...
और दूसरी बात... जैसे तीर कमान से... बात ज़ुबान से निकलने के बाद वापस नहीं आती, वैसे ही प्राण शरीर के बाद निकलने के बाद वापस नहीं आते और फिर वही हालत होती है कि अब पछताए होत क्या जब... जब मैं दो दिनों में दो सौ रुपये का इंतजाम नहीं कर सका तो मैंने पीटी सर की "दूसरी शर्त" को ही मानना उचित समझ लिया | दो दिन बाद पीटी सर ने मुझे एक बच्चे के हाथों बुलवा भेजा...
पीटी सर की नज़र पढ़ कर मैंने भी सिर झुका लिया। एक बार की बेशर्मी ने ज़िंदगी भर की शर्म को उतार फेंका।
पैसे ने भोलेपन को खरीद लिया था, जिसका फायदा पीटी सर ने ही नहीं, बल्कि मेरे सगे रिश्तेदारों ने भी उठाया। जीभ के चटखारों ने मुझे पूरी तरह से बेशर्म बना दिया था। ऐसी बेशर्मी भी कहीं छुपाई जा सकती है?
मैं बदनाम होता जा रहा था। और एक दिन...!
यह बदनामी मेरे घर तक भी आ पहुँची। हुआ यूं कि मैं अपने पापा के साथ बाज़ार कुछ सामान लेने जा रहा था कि सामने से आते स्कूल के एक लड़के ने मुझे रोका और मुझे पचास रुपये का नोट पकड़ाते हुए बोला कि पीटी सर ने मुझे शाम को बुलाया है।
पचास के नोट को देख मेरे पापा ने उस लड़के से पूछ लिया कि क्यों बुलाया है। तब लड़के ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ मेरी तरफ देखा और मेरे पापा को सारी बात बता दी। बात सुनते ही मेरे पापा चक्कर खाकर गिर पड़े। उनका बेटा और ऐसी गंदी हरकत!
चंद रुपयों के लिए... छी:!
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ऐसे समय में मुझे क्या करना चाहिए।
मैंने अपने पापा की तरफ बढ़ना शुरू किया, जो इस समय बराबर के मकान की दीवार पकड़कर बैठ गए थे। मैंने इधर-उधर सहायता के लिए देखना शुरू किया। मुझे देखते हुए इधर-उधर से जो लोग जा रहे थे, वे रुक गए।
उनमें से एक-दो व्यक्ति आगे बढ़े। उन्होंने मेरे पिता को देखने के बाद एक-दूसरे को देखा। मेरा मन कुछ आशंकित-सा हो उठा। मैं अपने पापा के पास पहुँचा और उन्हें हिलाने लगा। पास खड़े व्यक्ति यह सब कुछ देख रहे थे। जैसे ही मैंने अपने पापा को हिलाया, वे एक और लुढ़क गए। पास खड़े कुछ व्यक्तियों के हाथ में पानी की बोतलें भी थीं जिनमें से कुछ ने पानी निकालकर उन्हें पिलाने की कोशिश की, लेकिन कोशिश बेकार गई।
थोड़ी-सी दूरी पर एक ऑटो वाला खड़ा था। मैंने ऑटो वाले से प्रार्थना की कि वह मेरे पापा को लेकर हमारे घर ले चले। ऑटो वाले को कुछ दया आ गयी और वह मेरे साथ मिलकर पापा को ऑटो में लिटा मेरे घर ले चला। घर पहुँचते ही मैं दौड़कर अपनी माँ के पास पहुँचा और उन्हें सारी बात बताई। मेरी बात सुन कर माँ दौड़ी-दौड़ी बाहर आई और मेरे पापा को देख चीत्कार कर उठी। उनके पीछे आई मेरी बहन और भाई भी स्तब्ध थे। भाई ने उसी ऑटो वाले को कहा कि वह तुरंत अस्पताल चले।
अब मेरी जगह मेरे भाई ने ले ली थी, परंतु जो होना था, वह हो चुका था।
घर में कोहराम मचा था। रिश्तेदारों का आना शुरू हो चुका था। जंगल में आग की तरह खबर सारी रिश्तेदारी में पहुँच चुकी थी।
दिन बीतते गए! एक दिन भाई और माँ मेरे स्कूल पहुँचे। मुझे मालूम नहीं, लेकिन शायद, मेरी माँ और भाई को मेरी काली करतूतों का पता चल चुका था, तभी तो उसी दिन से उन दोनों का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया था। उनके बदले व्यवहार ने मेरे अंदर जैसे एक आग लगा दी थी। मैं प्रतिशोध लेने के लिए जैसे तैयार हो रहा था।
प्रतिशोध—किससे? किसकी गलती थी? मेरी, मेरे माँ-बाप की या उस पीटी टीचर की? मन ने एक निर्णय लिया...
पहले तो उस पीटी टीचर को मार डालूँगा, फिर स्वयं आत्महत्या कर लूँगा। इससे कम से कम परिवार की बदनामी भी होने से बच जाएगी और मैं भी माँ और भाई की नफरत से बच जाऊँगा।
हाँ, यही ठीक रहेगा, लेकिन इस काम को अंजाम कैसे दे पाऊँगा? कहीं पीटी टीचर के ऊपर हमला करने के आरोप में मैं ही कहीं जेल न पहुँच जाऊँ।
तो फिर क्या किया जाए... घोड़े की तरह दौड़ रहे उसके दिमाग में एक बात आई। वह थोड़ी देर बाद ही साइंस लैब की तरफ कदम बढ़ा रहा था।
लैब-असिस्टेंट उसका दोस्त था। उसने लैब असिस्टेंट से लाग-लपेट की बातें करनी शुरू कर दी। बातों-बातों में उसने साइनायड के बारे में सारी जानकारी ले ली और असिस्टेंट को बातों में लगाकर उससे यह भी पता लगा लिया कि साइनायड रखा कहाँ है?
अगले दिन वह अपने साथ एक “ऑलपिन” ले आया। उसने लैब असिस्टेंट को फिर बातों में लगाया और उससे अनुनय-विनय की कि वह एक बार उस साइनायड को हाथ में लेकर देखना चाहता है। बहुत अनुनय-विनय करने पर और इस शर्त पर कि वह इस बात को किसी को भी नहीं बताएगा कि मैंने साइनायड तुम्हें दिखाया है, दिखाने के लिए तैयार हो गया।
मैं अपनी “ऑलपिन” लिए तैयार था। लैब असिस्टेंट बड़ी ही चालाक भरी नजरों से चारों ओर देखते हुए मुझे चुपचाप उधर ले चला, जहाँ साइनायड रखा हुआ था। लैब असिस्टेंट ने साइनायड की बोतल की तरफ इशारा किया। मैंने उसे उठाने के लिए कहा तो लैब असिस्टेंट उसे उठाने लगा। मैं उसे ऑलपिन में लेने के लिए तैयार था। तभी अचानक मेरे “कौन” कहते ही लैब असिस्टेंट का ध्यान भटका।
सावधानी हटी दुर्घटना घटी! अगले ही पल रुई में लिपटी “ऑलपिन” में साइनायड आ चुका था और बिजली की सी फुर्ती के साथ ही बोतल का ढक्कन भी बंद हो चुका था। अब मैं पीटी टीचर को ढूँढ रहा था।
स्कूल के ग्राउंड की तरफ जाते पीटी टीचर को मैंने आवाज देकर रोका। अपनी एक किताब का बहाना बनाकर कि उसका आज पीरियड था, जो लगता है मैं आपके घर पर भूल आया था, लेने चलना है, क्योंकि उसमें से कुछ “होमवर्क” करना है।
पीटी टीचर ने “अच्छा” कहकर साथ ले चलने के लिए कह दिया। स्कूल से छुट्टी होते ही मैं पीटी टीचर के साथ उनके कमरे की ओर चल दिया।
दिमाग बहुत तेज दौड़ रहा था। चेहरे पर वही भोली मुस्कान बता रही थी कि भोली-भाली शक्ल वाले होते हैं जल्लाद भी। आधे घंटे बाद हम पीटी टीचर के कमरे पर खड़े थे। पीटी टीचर कुटिल मुस्कान के साथ मुझे देख रहे थे और मैं अपनी जेब में पड़ी जहर भरी सुई को।
अब हम दोनों कमरे में प्रवेश कर चुके थे। मैं किताब ढूँढने का बहाना बनाकर उनके कमरे को टटोलने लगा तो वह भी अपने कपड़े उतार बनियान-कच्छे में हो मुझमे भी कुछ "टटोलने" लगे | उनकी मंशा समझ मैं भी कपडे उतारने लगा | असल में मेरा कपड़े उतारने का मकसद ऑलपिन को कार्यान्वित करना था।
जैसे ही रुई में लिपटी ऑलपिन मेरे हाथ में आई, मैंने उसे चुपचाप पीटी सर के शरीर में तब चुभो दिया, जब वह मेरे गालों पर प्यार करने के लिए आतुर हो रहे थे।
ऑलपिन का जहर चुभते ही पीटी सर एक ओर को लुढ़क गए।
मैं चुपचाप उनके कमरे से निकला और बाहर का ताला लगाकर अपने घर की ओर हो लिया। पूरा रास्ता मुझे एक तरफ तो ऐसा लगा जैसे मेरे सीने से बहुत बड़ा बोझ उतर गया है और दूसरी तरफ हर व्यक्ति की निगाह अपनी ओर ही उठती दिख रही थी कि देखो, कातिल जा रहा है!
घर जाकर मैंने माँ से खाना तो माँग लिया, लेकिन खाना खाने की हिम्मत न हुई। कानों में जैसे आवाज गूँज रही थी—तू कातिल है। हाथ में हथकड़ी का अनुभव हो रहा था। जज साहब का निर्णय सुनने के लिए कान जवाब दे चुके थे। फाँसी के फंदे की कल्पना ने पूरे शरीर में पसीने की बूँदें ला दी थीं।
मैंने खाना छोड़ दिया। हाथ-मुँह धोया! कपड़े बदले! जैसे आज तुम अपनी माँ के चेहरे को देखते रहे उसी तरह मैं भी उस दिन अपनी माँ के चेहरे को ठीक उसी तरह देख रहा था।
शाम हुई! आँखों में आँसू दबाए मैं घर से बिना कुछ कहे निकल आया। आज तुम जहाँ से चले हो, ठीक उसी जगह मैं खड़ा हो गया था, आत्महत्या के लिए। मैं अभी सोच ही रहा था कि मेरे बाद मेरी माँ का क्या होगा, दूर से आती ट्रेन की सीटी की आवाज भी मैं न सुन सका और ट्रेन मेरे शरीर को दो भागों में बाँटकर चली गई।
मेरी आत्मा मेरे सामने खड़ी हँस रही थी। मेरी आत्मा के पास ही धीरे-धीरे और भी आत्माओं ने जुड़ना शुरू कर दिया था। अब वो आत्माएँ मेरी आत्मा को मौत के दरबार में ले जाने के लिए तैयार हो रही थीं, जब कि मैं बार-बार उनसे प्रार्थना कर रहा था कि मुझे छोड़ दें ताकि “मैं” अपने शरीर में दोबारा प्रवेश पा सकूँ।
परन्तु आत्माओं ने मुझे नहीं छोड़ा। मेरी विनती पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। बस इतना ही कहा कि जब कोई आत्मा अपने शरीर को छोड़ देती है तो वह दोबारा उस शरीर में प्रवेश नहीं पा सकती। अब वे मुझे “मौत” के “दरबार” में ले जा रहे थे। उनकी भयानक हँसी मुझे बार-बार रोने के लिए मजबूर कर रही थी। उनकी बातें इतनी भयानक थीं कि मुझे लग रहा था मैं भागकर अपनी माँ की गोद से लिपट जाऊँ और फिर कभी भी न निकलूँ।
परन्तु अब ऐसा संभव न था।
मैं उन आत्माओं के साथ सुदूर आकाश में खड़ा था और नीचे “मेरी” लाश के साथ ही लोगों की भीड़ भी बढ़ती जा रही थी। मुझे लग रहा था कि मैं दोबारा उस शरीर में प्रवेश पा जाऊँ और भीड़ को चीरते हुए भागकर अपनी माँ की गोद में छिप जाऊँ।
काश! ऐसा हो पाता!
न जाने कितना चलते-चलते कितने दिनों के बाद मैं उन आत्माओं के साथ, जो अब यमदूतों का रूप ले चुकी थीं, धर्मराज जी के समक्ष खड़ा था। मुझसे आगे भी अनगिनत आत्माएँ खड़ी थीं। उसी दरबार में बैठे चित्रगुप्त जी हर आत्मा के कर्मों का बखान करते और दूर कहीं से एक निर्णायक आवाज आती और उनके दूत उसका पालन करते।
ऐसी आत्माओं को जिनको भयानक से भयानक दंड मिलता, वे उन यमदूतों के चंगुल से निकल भागने का प्रयास भी करतीं, परन्तु किसी को भी सफलता न मिल पाती। उनके असफल प्रयास और भयानक दंड उनके पीछे खड़ी आत्माओं के पसीने ला देते।
खैर, मेरा भी नंबर आया!
मेरे बारे में चित्रगुप्त जी ने पढ़कर सुनाया। “मैं” बीच में बोलने लगा तो एक यमदूत की गदा ने पीठ पर प्रहार कर मुझे चुप रहने के लिए कहा। अपनी सजा सुन के चरणों में जा गिरा और उनसे अपने पापों की माफी माँगने लगा।
चित्रगुप्त जी ने यमदूतों को इशारा कर मुझे ले जाने के लिए कहा | मैं रोने बैठ गया| तभी एक यमदूत ने कहा कि तुमने जो कर्म किए हैं, उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा, चाहे रोकर भोगो या हँसकर। उसके लिए कोई माफी नहीं है। हाँ, अगर तुम चाहो तो सजा पूरी होने के बाद अच्छे-अच्छे कर्म करके दिखाओगे तो हो सकता है तुम्हें हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाए। परन्तु जो तुमने कर्म किए हैं, उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा, चाहे रोकर भोगो या हँसकर।
उन्हीं यमदूतों में वही यमदूत मेरा सबसे अच्छा दोस्त बन गया। अब मैं उसी यमदूत के साथ हर समय रहने लगा। बस हमारा बिछोह तब होता, जब उस यमदूत को किसी को "पृथ्वी" पर से लाना होता। मेरी सजा को मेरे दोस्त ने कई भागों में बाँट दिया था। सजा जो मुझे मिली थी, वह तो मुझे पूरी करनी ही थी | उसे तो मेरा दोस्त भी नहीं हटा सकता था। लेकिन हाँ, उस सजा का "दर्द" जरूर मेरे दोस्त ने कम कर दिया था।
तब एक दिन... मेरे इस दोस्त ने मुझसे कहा कि यदि मैं पहले दिन ही झूठ न बोलता और अपने माँ-बाप के गुस्से को सहन कर उन्हें सच बता देता तो न तो मुझे उस पीटी सर की हत्या करनी पड़ती और न ही मुझे गलत रास्तों पर चलना होता।
...और जब मैं गलत रास्तों पर चलता ही नहीं तो यहाँ पर ये सजा भी नहीं भुगतनी पड़ती! पगले, माँ-बाप तो माँ-बाप ही होते हैं, वे कभी भी अपने बच्चे का बुरा नहीं सोचते। तुम्हारा "दर्द" कम करने के लिए मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ...
एक शहर में माँ और बेटा रहा करते थे। दोनों की जिंदगी में खुशियाँ ही खुशियाँ भरी पड़ी थी। एक दिन जैसे तुम्हारी जिंदगी में ये पीटी टीचर आए, ठीक वैसे ही उस लड़के की जिंदगी में भी एक लड़की आई। वह लड़की वैश्या थी परन्तु इसका पता उसने लड़के को नहीं लगने दिया था। लड़की ने उस लड़के को अपने प्रेमजाल में इस तरह फाँस रखा था कि वह उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहता था।
अब उसकी वही माँ, जो उसके लिए सब कुछ थी, गौण हो गई थी। माँ को भी समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने बेटे को सही राह पर लाने के लिए क्या करे। माँ सही राह पर लाने के लिए बेटे को क्या-क्या कहती, ये सब बातें बेटा उस लड़की को बताता रहता, जिससे लड़के की माँ उस लड़की की आँखों में खटकने लगी थी।
एक दिन प्रेमालाप में उस लड़की ने लड़के से पूछा कि वह उसके लिए क्या कर सकता है? लड़के का जवाब था, जो वह कहेगी, वह सब कुछ करेगा। तो जानते हो उस लड़की ने क्या कहा?
उस लड़की ने कहा कि यदि वह शाम तक अपनी माँ का कलेजा लाकर उसे दे देगा तो वह हमेशा-हमेशा के लिए उसी की हो जाएगी।
बेटा गया माँ के पास और प्रेमांध होकर अपनी माँ का गला काट डाला। फिर माँ की लाश के टुकड़े-टुकड़े किए और लाश में से कलेजा निकालकर उस लड़की को देने के लिए चल दिया। जैसे ही हड़बड़ाहट में वह कमरे की दहलीज पर पहुँचा तो वह दहलीज से टकराकर गिरा और उसके हाथ से वह कलेजा दूर जा गिरा। जैसे ही वह कलेजे के पास पहुँचा, कलेजे में से आवाज आई—बेटा कहीं चोट तो नहीं लगी?
बेटा तो प्रेम में अंधा के साथ बहरा भी हो गया था। इसलिए उसे माँ के कलेजे की आवाज सुनाई नहीं दी। वह अपनी माँ का कलेजा लेकर जैसे ही उस लड़की के पास पहुँचा तो जानते हो उस लड़की ने क्या उत्तर दिया?
लड़की बोली, जो अपनी माँ का न हो सका, वह मेरा क्या होगा?
इसलिए मेरे दोस्त, माँ केवल माँ ही होती है। उसका स्थान कोई नहीं ले सकता। अगर उसकी मार भी पड़ती है तो वह भी बेटे या बेटी को "प्रसाद" समान समझनी चाहिए। हाँ, यदि वह "कलियुगी माँ" है तो मैं कुछ नहीं कह सकता। लेकिन अब जो कुछ होना था, वह तो हो चुका। अब उसे लौटाया तो नहीं जा सकता। हाँ मैं तुम्हारी भलाई के लिए जरूर कुछ करने की कोशिश करूँगा।
अब मेरी सजा धीरे-धीरे कम होने लगी तब मैंने अपने उस दोस्त से कहा कि मैं यहाँ बहुत घबरा गया हूँ। आत्माओं की चीख-पुकार सुनकर मैं काँप जाता हूँ। जब भी कोई नई आत्मा यहाँ आती है और अपने गुनाहों से तौबा कर सजा से बचना चाहती है तब उसकी चीख-पुकार मेरी जैसी अनेकों-अनेक आत्माओं को हिलाकर रख देती है।
उनकी "अब नहीं करूँगी", "अब माफ कर दो", "वचन देती हूँ" की चीख-पुकार सुनकर मैं तंग आ गया हूँ। मैंने अपने दोस्त से कहा कि अब मैं उसी के साथ रहना चाहता हूँ। मेरे दोस्त ने मुझसे जो पूछा, उसे सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मेरे दोस्त ने पूछा कि क्या मैं उसके साथ पृथ्वी पर से आत्माएँ लाने के लिए तैयार हूँ और यदि मैं ऐसा करने के तैयार हूँ, तब वह चित्रगुप्त जी और धर्मराज जी से उसके बारे में बात करेगा और उनसे विनती करेगा कि वह मुझे भी अपना दूत बना लें।
मैंने अपने चारों तरफ देखा। कहीं खून की होली चल रही थी तो कहीं कोड़े बरस रहे थे। चीख-पुकार चारों तरफ हो रही थी। कोई माफी माँग रहा था तो कोई चीखों पर चीखें मार रहा था। सब दर्द के मारे एक-दूसरे को घसीट रहे थे। मेरा हृदय काँप उठा | मुझे लगा कि इससे अच्छा तो मैं अपने दोस्त की बात मान लूं क्योंकि पृथ्वी पर जो भी जन्मा है, उसे हर हालत में हर कीमत पर मिट जाना है और मिटकर उसे हम सब की तरह अपने कर्मों का हिसाब देने इस दरबार में जरूर आना है।
फिर जब यही सब होना है तो फिर दोस्त के साथ इस काम में बुराई क्या ? दोस्त ने बताया कि पहले तो कुछ समय तक इस काम को करने में बहुत नफरत पैदा होगी, परन्तु जब किसी काम को करने की आदत पड़ जाती है, तब नफरत कब खत्म हो जाती है, पता भी नहीं चलता। हमारा काम तो बस आत्मा को इस "दरबार" में लाकर खड़ा करने का होता है, फिर उसके बाद सजा जो भी मिले, जैसी भी मिले, वह उसी को भोगनी पड़ती है।
अब मेरी समझ में धीरे-धीरे सब कुछ आता जा रहा था। मुझे अपने दोस्त के साथ ये काम करते-करते कुछ समय हो चला था। तभी हमें एक आत्मा को लाने के लिए आदेश मिला। उसने मुझसे (मानव से) पूछा कि जानते हो वह किसकी आत्मा को लाने के लिए भेजा गया था—वह तुम्हारे पिताजी की आत्मा थी।
वहीं अस्पताल में जहाँ तुम्हारे पिताजी ने दम तोड़ा था, वहीं दरवाजे पर तुम खड़े हुए अपने परिवार व रिश्तेदारों और पड़ोसियों को देख रहे थे। जिस समय हम तुम्हारे पिताजी की आत्मा को लेकर उस अस्पताल के वार्ड के दरवाजे से बाहर निकले, तब तुम्हारे पिताजी की आत्मा कुछ सेकंड के लिए तुम्हारे पास रुकी थी, जिसे तुम देख नहीं सके थे। तब तुम्हारे पिताजी की आत्मा ने हमें देखा और निकल लिए । तुम सब निष्प्राण अपने पिताजी के शव को देख रहे थे।
जब हम तुम्हारे पिताजी को ले जा रहे थे, तब उन्होंने हमसे प्रार्थना की थी कि जब हम जब भी इस पृथ्वी पर किसी के प्राणों को लेने के लिए आएँ, तब एक बार तुम्हें संभालने के लिए जरूर आ जाया करें।
हमने तुम्हारे पिताजी की यह बात स्वीकार कर ली, लेकिन उन्हें एक बात से जरूर अवगत करा दिया कि जिस घड़ी, जिस लम्हे, जिस पल तुम्हारी आत्मा ने तुम्हारे इस शरीर को छोड़ना है, उस समय हम तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर पाएँगे, बल्कि तुम्हारी आत्मा को तुम्हारा शरीर छुड़वाने के लिए मजबूर करेंगे। तुम्हारे पिताजी ने इस बात को इसीलिए स्वीकार कर लिया कि उन्हें पता था इस पृथ्वी पर जितने भी प्राणी हैं, उन सबका काल अपने समय पर निश्चित है। ऐसे ही तुम्हारा काल भी निश्चित है जैसे तुम्हारे दादा-परदादा यहाँ इस धरती पर नहीं रहे उसी तरह तुम भी नहीं रहोगे। वैसे एक बात मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ—यदि तुम आज तक इस पृथ्वी पर जिन्दा हो तो उसका केवल एक कारण है—तुम्हारे पूर्व-जन्म के कर्म। तुम इससे पहले भी चार बार मौत से मुकाबला कर चुके हो। कहो तो "मैं" याद दिलाऊँ।
बचपन में जब तुम बहुत छोटे थे, रामलीला देखने के लिए अपने एक रिश्तेदार के साथ गए हुए थे, वहीं तुम्हारा दिल घबराने लगा था। वह घबराहट दिल का दौरा पड़ने से पहले की थी। फिर तुम रामलीला छोड़कर अपने उसी रिश्तेदार को लेकर घर भाग आए थे। दूसरी बार जब तुम अपनी दुकान के लिए सामान लेने गए हुए थे और वह सामान का थैला लिए हुए बस के गेट से तुम गिर गए थे और बस का पहिया तुमसे कुछ इंच ही दूर रह गया। तीसरी बार जब तुम दूसरे शहर से, जहाँ तुम्हारी दुकान थी, आ रहे थे और ट्रेन की सबसे निचली पटरी पर जल्दबाजी में उतरने के लिए खड़े थे। तब किसी ने तुम्हें प्लेटफॉर्म आने से पहले डिब्बे के अंदर फेंका था।
लेकिन तुम ये सब क्यों बता रहे हो? क्योंकि "मैं" तुम्हारे साथ तब से हूँ, जब तुम बहुत छोटे थे। लेकिन तुम ये सब क्यों कर रहे थे?
इसका जवाब मैं नहीं दे सकता। बस, मैं तो इतना बता सकता हूँ कि जब भी कोई आत्मा इस दुनिया में जन्म लेती है, उसी वक्त से "मौत" का दूत उसके साथ लग जाता है। वह उसके अच्छे और बुरे कर्मों का सब हिसाब रखता जाता है और वह तुम्हारी दुनिया में कहते हैं न कि जब घड़ा पाप कर्मों से भर जाता है तो...
हमारा काम है आत्माओं को ले जाना तो उन्हें बचाने का काम भी हमारे ही सुपुर्द किया जाता है ताकि उन्हें भटकने से बचा सकें, जैसे तुम्हारे साथ हो रहा है। ऐसा इसलिए भी किया जाता है कि इस दुनिया के चलाने वाले ने हर इंसान को एक विशेष काम के लिए इस दुनिया में भेजा होता है, जब वह "विशेष काम" उस आत्मा के द्वारा सम्पन्न हो जाता है, वह उसे किसी भी तरीके से अपने पास बुला लेता है। किसी को किसी की मौत बनाकर भेजता है तो किसी को किसी की जिंदगी। खैर, छोड़ो। अब ये बताओ कि तुम्हारा क्या फैसला है? घर वापस जाना है या मौत को गले लगाने के लिए यहीं पटरी पर बैठना है।
लेकिन तुम्हारे फैसले से पहले एक बात और बता देना जरूरी समझता हूँ। मानव ने इधर-उधर देखा। कोई न था।
मैंने कहा था न कि मुझे देखने या छूने की कोशिश मत करना।
अब मानव घर कैसे जायेगा क्योंकि उसके पास तो जाने का कोई साधन ही नहीं था | अब वह क्या करेगा?...
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