ख़ैर, शादी वाले दिन पति-पत्नी अपने बच्चे को लेकर चल दिए । जब वे गाँव पहुँचने वाले थे तो पति अपनी पत्नी से बोल कि गाँव के बाहर जो ये पेड़ है, यहाँ पर बच्चे को लिटा जाते हैं । अब शादी का घर है, तू लह्सेगी (इठलाएगी) मैं मह्सूंगा (रौब दिखाऊंगा), इस होल लिए (बच्चे) को कौन खिलाएगा । पत्नी ने सोचा पति कह तो ठीक रहा है । सो, उसने भी हामी भर दी ! तीन-चार दिन बाद जब पति-पत्नी विदा होकर आये तो देखा बच्चा मृत पड़ा है । अब उन्हें पता चला कि यदि वे भी इस होल लिए (बच्चे) को अपने साथ ले जाते तो थोड़ी देर पति संभल लेता और थोड़ी देर पत्नी तो उन्हें अपने बच्चे को तो इस तरह ना खोना पड़ता !
थोड़ी देर पहले वह घोंचू - सा लगने वाला वह दोस्त मुझे अब सभी से समझदार लगने लगा था ! इस कहानी के जरिए उसने सभी कुछ तो कह डाला था !
शादी का लड्डू वाकई बहुत मीठा होता है, मगर उसे खाना आना चाहिए ! कुछ लोगों ने इस लड्डू में "कुनैन"
जरुर डाल दी है, दहेज़ का नाम दे कर अथवा गर्भ में "भ्रूण हत्या" का नाम देकर, लेकिन ऐसा करके वे किस समाज का निर्माण करने में लगे हैं, समाज से परे है ! जब गर्भ में "कन्या भ्रूण हत्या" ही हो जाएगी तो वे अपने बेटों के लिए "दुल्हनें" कहा से लाएंगे ? ये शादी का लड्डू लोहे की बॉल पर लगी बूंदियाँ भी नहीं है ! जो थोड़े ही समय के बाद ख़त्म हो जाती है और गलों के बीच में केवल गेंद ही फंसी रह जाती है !
जरुर डाल दी है, दहेज़ का नाम दे कर अथवा गर्भ में "भ्रूण हत्या" का नाम देकर, लेकिन ऐसा करके वे किस समाज का निर्माण करने में लगे हैं, समाज से परे है ! जब गर्भ में "कन्या भ्रूण हत्या" ही हो जाएगी तो वे अपने बेटों के लिए "दुल्हनें" कहा से लाएंगे ? ये शादी का लड्डू लोहे की बॉल पर लगी बूंदियाँ भी नहीं है ! जो थोड़े ही समय के बाद ख़त्म हो जाती है और गलों के बीच में केवल गेंद ही फंसी रह जाती है !
शादी का लड्डू कभी खाया नहीं जाता । उसे तो मुंह में रख क्र चूसा जाता है, जितना समय मुंह में रखा रहेगा, उतने ही समय तक उसकी मिठास शरीर में घुलती जाएगी और परिवार की बगिया महकती रहेगी और जब कभी भी इसमें "कुनैन" या "लोहे की बॉल" का एहसास होने लगेगा, जिंदगी दुर्भर हो जाएगी !
अब धीरे-धीरे मेरी समझ में आने लगा था की बुजुर्ग व्यक्ति क्यों कहते हैं कि शादी का लड्डू जिसने खाया वह भी पछताया और जिसने नहीं खाया, वह भी पछताया !!
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